________________
(४९०) चरकसंहिता-भा० टी०।
मोभ्यामुपहतचेतसामुद्घान्ताविषमवहुदोषाणां समलविकतोपहितानि अशुचानि अभ्यवहारजातानि वैषम्ययुक्तेन उपयोगविधिनोपयुञ्जानानांतन्त्रप्रयोगसपिचविषममाचरतामन्याश्चशरीरचेष्टाविषमा:समाचरतामत्युपक्षीणदेहानांवादोषाःप्रकुपितारजस्तमोभ्यामुपहतचेतसामन्तरात्मनःश्रेष्ठतममायतनहृदयमुपसंगृह्यपर्यवतिष्ठन्तेतथाइन्द्रियायतनानितत्र चावस्थिताःसन्तोयदाहृदयमिन्द्रियायतनानिचोरताःकामक्रोधभयलोभमोहहर्षशोकचिन्ताद्वैगादिभिःभूयःसहसाअभिपूरयन्तितदाजन्तुरपस्मरति ॥ २॥ वह अपस्मार (मृगी) रोग ऐसे मनुष्योंके शरीरमें शीघ्र होताहै जिनका नीचे कथन करतेहैं । ऐसे रजोगुण और तमोगुणसे ढकेहुए चित्तवाले जिनके शरीरमें वातादिदोष उद्भ्रान्त अथवा विषम, या वढेहुए हों । जो मनुष्य आहार विधिको त्याग कर मलीन, बिगडाहुवा, गतरस, अपवित्र ऐसे २ आहारको करताहै । अथवा विषमभोजनको करताहै। जो शास्त्रीयविधिके प्रतिकूल अन्यान्य आहारविहारोंको करताहै। तथा अनेकप्रकारकी विषमचेष्टा करनेवाले एवम् क्षीणदेहवाले ऐसेर मनुष्योंके अमिरमें वातादि दोष कुपित हो अंतरात्माके श्रेष्ठस्थानरूप चित्तमें प्रवेश करतेह और उस चित्तको रजोगुण और तमोगुणसे उपहत (विगाड) कर स्थित रहतेहैं ।फिर उस मनुष्यके काम, क्रोध, भय, लोभ, मोह, हर्ष,शोक, चिंता, और उद्वेग आदिसे सहायता पाकरहृदय और इंद्रियोंके स्थानोंको सहसा पूरण कर अपस्माररोगको उत्पन्न करतेहैं ॥२॥
अपस्मारके लक्षण। अपस्मारंपुनःस्मृतिबुद्धिसत्त्वसप्तवाहीभत्सचेष्टमावस्थिकंतमः प्रवेशमाचक्षते ॥३॥ .. . स्मरणशक्ति,बुद्धि, सत्त्व, यह सब नष्ट होकरभयानक चेष्टाकी अवस्थारूप अंधः । कारमें प्रवेश होनेको अपस्मार (मृगी) रोग कहतेहैं ॥ ३ ॥
__ अपस्मारके पूर्वरूप। तस्येमानिपूर्वरूपाणिभवन्ति । तद्यथा--भ्रूव्युदासःसततमक्ष्णोर्वैकृतमशब्दश्रवणलालाशिंघाणकप्रस्त्रवणमनन्नाभ्यशन