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चरकसंहिता-भा० टी०॥ वह उन्मादरोग निज और आगन्तुज भेदसे पांच प्रकारके और साध्य असाध्यके भेदसे दो प्रकारके होतेहैं ॥२०॥
तौ परस्परमनुबनीतः । कदाचिद्यथोक्तहेतुसंसर्गाच तयोः सं. सृष्टमेव पूर्वरूपं भवति संसृष्टमेवलिङ्गश्च । तत्र असाध्य. संयोगसाध्यासाध्यसंयोगवाअसाध्यंविद्यात् ।साध्यन्तुसाध्यसंयोगं तस्य साधनं साधनसंयोगमेवविद्यादिति ॥ २१ ॥ उन आगन्तुज और निज अर्थात् दोषज उन्मादोंका भी आपसमें संवन्ध होता है। निज और आगन्तुज कारणोंका संसर्ग होनेसे पूर्वरूपमें तथा लक्षणोंमें भी संसर्ग होजाताहै वह इस प्रकार निज और भागन्तुज उन्मादोंका संसर्ग हुआ असाध्य. साको प्राप्त होजाताहै एवम् साध्य और असाध्योंका संसर्ग होना भी असाध्य ही जानना चाहिये । इस प्रकार मिलेजुले निज और आगन्तुज उन्मादोंमें तथा साध्य और असाध्यों में चिकित्सा भी मिलीजुली करनी चाहिये ॥ २१ ॥
तत्र श्लोकाः। नैव देवा न गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
न चान्ये स्वयमक्लिष्टमुपक्लिश्यन्ति मानवम् ॥ २२ ॥ जो मनुष्य अपने पाप तथा दोषोंसे रहित होताहै उसके शरीरमें कोई देवता, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, आदि तथा अन्य भी कोई किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करते ॥ २२॥
ये त्वेनमनुवर्तन्ते क्लिश्यमानं स्वकर्मणा । .
न तन्निमित्तः क्लेशोऽसौ न ह्यस्तिकृतकृत्यता ॥ २३ ॥ जो मनुष्य अपने पापकोसे कष्टको भोगतेहुए देवता आदिको दोष देतेहैं और अपने किये पापोंको अपने दुःखका कारण नहीं समझते वह संपूर्णरूपसे झूठे हैं और अपने कार्यकी कृतकृत्यताको प्राप्त नहीं होते ॥ २३ ॥ प्रज्ञापराधात् सम्प्राते व्याधौ कर्मजआत्मनः । नाभिशंसद्बुधोदेवान् न पितन् नापि राक्षसान् ॥ २४ ॥
अपनी बुद्धिसे अपराधसे किये हुए कुकोंके फलसे संकट प्राप्त होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य देवता तथा पितृगण एवम् राक्षसादिकोंको दोष न देवें ॥ २४ ॥
आत्मानमेव मन्येत कर्तारं सुखदुःखयोः । . तस्माच्छेयस्कर मार्ग प्रतिपद्येत नोत्रसेत् ॥ २५ ॥