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निदानस्थान-अ० ७.
(४८९) बुद्धिमान्को उचित है कि अपनेको ही सुखदुःखका कारण माने । इसलिये कल्याणके करनेवाले मार्गपर चलता रहे । ऐसा करनेसे मनुष्य त्रासको प्राप्त नहीं होता ॥ २५॥
देवादीनामुपचितिर्हितानामुपसेवनम्।
न च तेभ्यो विरोधश्चसर्वमायत्तमात्मनि ॥ २६ ॥ हित वस्तुओंका सेवन करना एवम् हित आचरण रखना यही देवतादिकोंका 'यूजन है क्योंकि देवताओंको प्रसन्न रखना तथा उनसे विरोध उत्पन्न करना यह सव अपने ही आधीन होता है ॥ २६ ॥
संख्यानिमित्तं द्विविधं लक्षणं साध्यता न च । उन्मादानां निदानेऽस्मिन् क्रियासूत्रञ्चभाषितम् ॥ २७ ॥
इस उन्मादरोग निदान नामक अध्यायमें उन्मादरोगकी संख्या, कारण,उनके दोनों प्रकारों के लक्षण, साध्यता और असाध्यता तथा संक्षेपसे उनकी चिकित्साके क्रमका वर्णन किया है ॥ २७ ॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसंहितायां पटियालाराज्यान्तर्गतटकसालनिवासिवैद्यपंचानन पं०रामप्रसादवैद्योपाध्यायविरचितप्रसादन्याख्यभापाटीकाया.
__ मुन्मादरोगनिदानं नाम सप्तमोध्यायः ॥७॥
अष्टमोऽध्यायः।
अथापस्मारनिदानं व्याख्यास्याम इति हमाह भगवानात्रेयः। अब हम अपस्मार रोगके निदानको कथन करते हैं । इस प्रकार भगवान् आत्रेयजी,कथन करनेलगे।
अपस्मारके भेद। . इह खलु चत्वारोऽपस्मारा वातपित्तकफसन्निपातनिमित्ताः१॥
इस शरीरमें अपस्माररोग चारप्रकारसे उत्पन्न होता है । जैसे वातसे, पित्तसे, कफसे एवम् सन्निपातसे ॥ १॥ ..
अपस्मारके योग्यपुरुष । ते एवंविधानां प्राण तांक्षिप्रमाभनिवर्तन्तोतद्यथा रजस्त