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चरकसंहिता-भा० टी० ॥ चार द्वारा परीक्षा करे । एवम् व्याधिकी अवस्था विशेषको जानकर जैसी जैसी अवस्थाएँ हों वैसी वैसी चिकित्सा करनेसे चतुर वैद्य कल्याणको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ ३५॥
चिकित्साकी विधि। . प्रायस्तिय॑ग्गवादोषाःक्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम् । तेषुनत्वरया कुर्यादेहाग्निबलविताक्रियाम् ॥३६॥ प्रयोगैःक्षपयेद्वातान्सुख वाकोष्ठमानयत्ाज्ञात्वाकोष्ठप्रपन्नांस्तान्यथास्वंतंहरेबुधः॥३७॥ दोष प्रायः तिर्यगामी होनेसे मनुष्यको बहुत कालतक कष्ट देते, उनमें देह, अग्नि और वलकी परीक्षा करनेवाला वैद्य शीघ्रता न करे । ऐसे समयमें जव कि दोष तिर्यगामी हो गये हों औषधी प्रयोगद्वारा उनको धीरे २ पकाकर कोष्ठमें ले आवे । फिर जब वह कोष्ठमें आजाय तव उनको जो २ जिस प्रकार निकालने योग्य हों उस प्रकार निकाल डाले ॥३६॥ ३७॥
ज्ञानार्थयानिचोक्तानिव्याधिलिङ्गानिसंग्रहे । व्याधयस्तेतदात्वेतुलिङ्गानीष्टानिनामयाः॥३८॥ विकाराःप्रकृतिश्चैवद्वयंस
समासतः । वद्धतुवशगंहेतोरभावान्नानुवर्तते ॥ ३९॥ रोगके परिज्ञानके लिये संग्रहमें जो लक्षण कथन कियेहैं उनको भी अलग २ होनेपर रोग ही जानना चाहिये जैसे-किसी रोगके लक्षणमें श्वासका होना कथन कियाह अश्या अतिसारका होना कथन कियाहै यदि यह रोगके विना शरीरमें प्रगट हों तो यही रोग होते हैं। परन्तु ज्वरादिकोंके समय ज्वरके वेगसे इनका होना रोग न कहा जाकर ज्वररोगका उपद्रव माना जायगा । रोग और प्रकृति यह दोनों ही संक्षेपसे सब रोगोंमें कथन करनेमें आतेहैं । सो वह प्रकृति अर्थात रोगजनक कारण और रोग यह दोनोंही अपने हेतुके वश हैं अर्थात् अनुचित आहार विहारके होजानेसेही बलको प्राप्त होतेहैं। यदि अहित आहार आदि रोग और रोगकी प्रकृतिका कारण न होने पावें तो कारणके अभावसे यह दोनों उत्पन्न नहीं हो सकते ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
तत्रश्लोकाः। हेतवःपूर्वरूपाणिरूपाण्युपशयस्तथा । संप्राप्तिःपूर्वमुत्पत्तिः सूत्रमात्रंचिकित्सितम्॥४०॥ ज्वरादीनांविकाराणामष्टानांसाध्यतानच । पृथगेकैकशश्चोक्ताहेतुलिङ्गोपशान्तयः ॥ ४ ॥