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(९०२) चरकसंहिता-भा० टी०॥ हेतोः षट्त्वमुपदिश्यते रसानां परस्परेणासंसृष्टानाम् । त्रित्वञ्च दोषाणाम् । संसर्गविकल्पविस्तारोहोषामपरिसंख्येयो भवति विकल्पभेदापरिसंख्येयत्वात् ॥५॥ शरीरमें कई एक रसों तथा दोषोंका मिलाप होनेपर जो रस जिस दोषके समान गुणवाले हों उस दोषको बढाते हैं तथा समान गुणवालोंमें भी जिस दोषके बढाने. वालोंकी आधिकता हो वह उसकीही वृद्धि करते हैं । इसी प्रकार विपरीत गुणवाले रस दोषोंको शान्त करते हैं। उनमें भी विशेषतास विपरीत गुणवाले जिस दोषसे विपरीत गुणवाले हों उसकोही शमन करते हैं। इस प्रकार व्यवस्था स्थापन करनेके लिये अलग अलग छः रसोंका कथन किया है, और तीन दोषोंका कथन किया है। रसोंके संसर्ग जनित विकल्पोंसे इनकी संख्या परिमाणसे बढजातीहै अर्थात् असंख्य होजातेहैं । क्योंकि विकल्प द्वारा अंशांश कल्पनाकर भद विशेषसे असंख्य होजाते हैं ॥५॥
तत्र खलु अनेकरसेषु द्रव्येष्वनेकदोषात्मकेषु च विकारेषु रसदोषप्रभावमेकैकत्वेनाभिसमीक्ष्य ततो द्रव्यविकार.. प्रभावतत्त्वं व्यवस्येत् । नत्वेवं खलु सर्वत्र । न हि विकृतिविषमसमवेतानां नानात्मकानां द्रव्याणां परस्परेण चोपहतानामन्यैश्च विकल्पनैर्विकल्पितानामवयव. प्रभावानुमानेन समुदायप्रभावतत्त्वमध्यवसितुमशक्यम् ॥६॥ उन अनेक रसोंवाले अनेक द्रव्योंमें अनेक रस मिले हुए होनेपर उनके एकएक रसको अलग अलगं जानकर द्रव्य प्रभाव जान लेना चाहिये । उसी प्रकार अनेक दोषोंके मिले हुए विकारोंमें कौन २ दोष कितने २ अशसे मिला हुआ है इसको अलग अलग जानकर दोषप्रभाव जानलेना चाहिये। परन्तु संब जगह यही क्रम. नहीं होता क्योंकि विकृत भाव तथा विषममानसे मिले हुए अनेक आत्मक द्रव्योंका ' एकके रससे दूसरेके रसका तथा आपसमें स्वभाव तत्वका परस्पर हनन होनेसे.' रसके समुदाय प्रभावका तत्व पृथक् पृथक् नहीं जाना जा सकता। उसी प्रकार विकृत और विषमभावसे मिले हुए दोषोंका आपसमें परस्पर हनन भाव होनेसे . विकल्प जनित सूक्ष्म अंशोंका पृथक् पृथक् जान लेना भी कठिन होता है ॥ ६ ॥
तथायुक्ते हि समुदाये समुदायप्रभावतत्त्वमेवोपलभ्य ततो रसद्रव्यविकारप्रभावतत्त्वं व्यवस्येत् तस्मादसत्प्रभावतश्न