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निदानस्थान - अ० ७.
(४८७) चित्तका कहीं न लगना, ओज, वर्ण, कांति, वल इन सबका नष्ट होना, शरीरक तपायमान रहना, सममें देवता आदि उसको बहुत डरावें और बुरे शब्द कहें । यह आगन्तु उन्मादरोग पूर्वरूप हैं। इसके उपरान्त उन्मादरोगके लक्षण प्रगट होजाते हैं ॥ १४ ॥
उन्मादोत्पत्तिसे पूर्वचेष्टा ।
तत्रायमुन्मादकराणां भूतानामुन्मादयिष्यतामारम्भविशेषःतयथा - अवलोकयन्तोदेवाजनयन्तिउन्मादम् । गुरुवृद्धसिद्धर्षयोऽभिशपन्तः पितरो धर्षयन्तः। स्पृशन्तो गन्धर्वाः । समावि - शन्तोयक्षराक्षसास्त्वामगंधमाघ्रापर्यंतःपिशाचाः पुनरधिरुह्य . वाहयंतः ॥ १५ ॥
आगन्तुक उन्माद प्रगट होने के समय उन्मादकारक देवादिकों के अलग २ प्रकार भेदसे उन्मादरोगका आरम्भ होता है। जैसे- देवता देखनेमात्रसेही उन्माद रोगको · उत्पन्न करते हैं । गुरु, वृद्ध, सिद्ध और ऋषि इनके शाप देनेसे उन्माद रोग होता है। . पितरोंके डरानेसे उन्माद रोग होता है । गंधर्व शरीरको स्पर्शकर उन्मादको उत्पन्न 'करते हैं । यक्ष, राक्षस शरीर में प्रवेश होकर उन्मादको उत्पन्न करते हैं । पिशाच देहमें आमगंधको सूंघकर और शरीर के ऊपर चढकर उन्माद रोगको उत्पन्न करते हैं १५ ॥ उन्मादके रूप ।
तस्येमानि रूपाणि । तद्यथा अमर्त्यबलवीर्य्य पौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणज्ञानवचनविज्ञानानि अनियतश्चोन्मादका
लः ॥ १६ ॥
उस उन्माद रोगके यह लक्षण होते हैं। जो मनुष्यों में न हों, उस प्रकारके अर्थात् अमानुषीय- वल, वीर्य, पराक्रम, पौरुष, ज्ञान और विज्ञान यह सब उस मनुष्यके शरीरमें उन्मादके समय उत्पन्न हो जांय तथा उस उन्मादके होनेका कोई नियत -समय न हो ॥ १६ ॥
आघातकाल |
उन्मादायेष्यतामपिखलुदेवर्षिपितृगंधर्वयक्षराक्षसापशाचानां गुरुवृद्धसिद्धानां वाएषुअन्तरेषुअभिगमनीयाः पुरुषा भवंति तद्यथा- पापस्य कर्मणः समारम्भेपूर्वकृतस्यवाकर्मणः परिणा