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( १८६) चरकसंहिता-भा० टी०
संशोधनका फल । एवंविशुद्धकोष्ठस्यकायाग्निराभिवईते । व्याधयश्चोपशाम्य. न्तिप्रकृतिश्चानुवर्तते ॥१५॥ इन्द्रियाणिमनोबुद्धिवर्णश्चास्यप्रसीदति । वलंपुष्टिरपत्यञ्चवृषताचास्यजायते ॥ १६ ॥ जरांरुच्छेणलभतोचिरंजीवत्यनामयः । तस्मात्संशोधनंकाले युक्तियुक्तंपिवेन्नरः ॥ १७ ॥ इस प्रकार शुद्ध कोष्ठवाले मनुष्यके जठराग्निकी वृद्धि होतीहै । सब रोग शांत होजातहैं । सब स्वाभाविक गुण ठीक होजातहैं । इंद्रिये, मन, बुद्धि, वर्ण, यह प्रसन्न होय । वल, पुष्टि, सन्तान, पुरुषपना,यह उत्पन्न होय। बुढापा जल्दी नहीं आता, नीरोग रहकर वडी आयुवाला होय । इसलिये युक्तियुक्त वमन विरेचनसे शरीरको उचित कालम शुद्ध करना चाहिये ।। १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥
संशोधनकी उत्कृष्टता। दोषाःकदाचित्कुप्यन्तिजितालंघनपाचनैः जिताःसंशोधनयें । तुनतेपांपुनरुद्भवः ॥ १८ ॥ दोषाणाञ्चद्रुमाणाञ्चसूलेऽनुपहते सति । रोगाणांप्रत्रवाणाञ्चगतानामागतिधूवा ॥ १९॥ यदि लंघन और पाचनद्वारा दोष जीतेजाय तो वह कभी फिर भी कुपितः होसकतह । परंतु संशोधनद्वारा जीतेहुए दोप फिर प्रगट नहीं होसकते । दोषोंको और वृक्षांको यदि बिल्कुल जडसे न निकालदिया जाय तो उन दवेहुएं दोपासे काल पाकर रोग और रहीहुई वृक्षकी जडसे फिर अंकुरादि पैदा होना अवश्यंभावी है इसलिये इनको जडसे निकालदेना ही अच्छा है ॥ १८ ॥ १९ ॥
औषधक्षीणके लिये पथ्य । भेषजक्षपितेपथ्यमाहारैरेवव्रहणम् । घृतमांसरसक्षीरहृययूपापसाधितैः ॥ २० ॥ अभ्यङ्गोत्सादनैःस्नाननिरूहैःसानुवा. सनः । तथासलभतेशर्मयुज्यतेचायुपाचिरम् ॥ २१ ॥ यदि वमन विरेचनकी आँपधिक अधिक सेवनसे मनुष्य क्षीण होजाय तो उसको पथ्य आहातले पुष्ट करना चाहिये । तया घृत, मांसरस, दूध हृद्य ( हृदयका प्रिय) पदार्थ, वृपआदि देकर पुष्ट करे । और तेल की मालिश, उवटना, स्नान, निरहण और अनुवासन पस्ति करे ऐसा करनेसे उसका कल्याण होता है भार आय बढी ॥ २० ॥ २१ ॥