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चरकसंहिता-भा० टी ।
महामूलादिनामका कारण। . तस्योपघातान्मूयिंभेदान्मरणमृच्छति।
यद्धितत्स्पर्शविज्ञानंधारितत्तत्रसंश्रितम् ॥ ४॥ . हृदयमें चोट आदि किसी प्रकारका उपघात होनेसे संपूर्ण शरीरमें मूर्छाआजा लीहै एवम् हृदयके फटजानेसे मृत्यु होजातीहै । जो स्पेशन्द्रिय आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुई ज्ञानको धारण करनेवाली जीवनी शक्ति है वह हृदयके ही आश्र. यीभूत है ॥ ४॥
तत्परस्यौजसास्थानंतत्रचैतन्यसंग्रहः।।
हृदयंमहदर्थश्चतस्मादुक्तंचिकित्सकैः ॥ ५॥ चैतन्यशक्तिका धारण करनेवाला जो ओजधातु है वह ओज और चैतन्य भी हृदयके ही आश्रय हैं इस लिये चिकित्सकोंने हृदयको महत् और अर्थ कहाहै ५॥
ओजाधातुका गुणकर्म । तेनमूलेनमहतामहामूलामतादश । ओजोवहाःशरीरेवाविधम्यन्तेसमन्ततः ॥६॥येनौजसावर्त्तयन्तिप्रीणिताःसर्वदेहिनः ॥ यहतसर्वभूतानांजीवितंनावतिष्ठते ॥ ७ ॥
यह हृदय ही उन बडी बडी दश धमनियोंका मूल होनेसे वह नाडियाँ महा-मूला कहीजाती हैं यह दश धमनिये शरीरमें ओजको वहन करती हुई सम्पूर्ण शरीरमें ध्मायमान होती हैं इसलिये इनको धमनी कहते हैं । उस ओजके द्वारा ही सम्पूर्ण शरीरको पालन करती हुई देहको जीवित रखती है जिस ओजके विना सम्पूर्ण मनुष्योंका जीवन नहीं रहसकता ॥ ६ ॥ ७ ॥ यत्सारमादौगर्भस्ययोऽसौगर्भरसाद्रसः। संवर्द्धमानहृदयंसमाविंशतियत्पुरा ॥८॥ यस्यनाशात्तुनाशोऽस्तिधारियङ्घद
याश्रितम् ॥ यःशररिरसःस्नेहप्राणायनप्रतिष्ठिताः॥ ९॥ . ओंज ही आदिमें गर्भका सारभूत है तथा गर्भके उत्पन्न करनेवाले रसका भी सार है। यह भोज ही शरीरको उत्पन्न करनेके लिये हृदयमें प्रथम प्रवेश होताहै जिस ओजके नष्ट होनेसे शरीर भी नष्ट होजाताहै वह ओजही हृदयमें रहकर शरीरको धारण करताहै । यही शरीरका बल है, देह और प्राण इसीके आभित हैं तयां शरीरके धारण करनेवाले रस और वह यह सब उस ओजके ही आभय हैं और उस मोजका स्थान हृदय है ॥ ८ ॥ ९ ॥
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