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चरकसंहिता-भान्टी। · वात,पित्त,कफ इन तीनों दोषोंके निमित्तसे वीस प्रकारके प्रमेह उत्पन्न होतेहैं। यद्यपि इन बीस प्रकारोंके सिवाय प्रमेहोंके अन्य प्रकार भी हैं परन्तु वह गणनामें नहीं आसकते । अतएव प्रमेहोंकी बीसप्रकारकी ही संख्या है सो जिस प्रकार तीनों दोष कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करतेहैं उनका वर्णन करतेहैं ॥१॥ . इहखलुनिदानदोषदृष्यविशेषेभ्योविकाराणांविघातभावाभावप्रतिविशेषाभवन्ति ॥ २॥ इस स्थानमें हेतु, दोष और दूष्यके भेदसे रोगोंका विघात, भाव और अभावकी भेदता होतीहै ॥२॥
यदा तेत्रयोनिदानादिविशेषाःपरस्परंनानुबध्नन्तिअयथाप्रकर्षादबलीयांसोवानुवघ्नन्तिनतदाविकाराभिनिवृत्तिः । चि
राद्वाप्यभिनिवर्तन्तेतनवोवाभवन्यथवाप्ययथोक्तसलिङ्गाविपर्ययेणविपरीताइतिसर्वविकाराविघातभावाभावप्रतिविशे· पाभिनिवृत्तिहेतुरुक्तः॥३॥
जब वातादि तीनों दोषोंके हेतु परस्पर अर्थात् आपसमें एकसे दूसरा प्रतिषेध कारक होनेके कारण रोगोंको उत्पन्न नहीं होनेदेता उसको रोगोंका विधात कहते हैं। जैसे दुर्बलभावंसे दोषोंका परस्पर अनुबंध होनेसे रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होती इसको रोगोंका विधात कहतेहैं । अथवा रोग विलम्बसे उत्पन्न हो या बहुत थोडा उत्पन्न हो अथवा जैसा होनाचाहिये था वैसे लक्षणयुक्त न हो। इस प्रकार रोगोंको विघात,भाव, अभाव, प्रतिनिर्वृत्तिके हेतुओंको कहाहै तात्पर्य यह हुआ कि निदान, दोष, दूष्य विशेषों करके जो विकारोंका इकट्ठा होनाहै उसको विधात कहतेहैं । अथवा वातकारक हेतुसे. विपरीत गुणकारक हेतुके मिलजानेसे जो रोगका उत्पन्न न होनाहै उसको विघात जानना चाहिये । और दो दोषोंका मिल करके अथवा दो हेतुओंका मिल करके रोगका होना भाव कहा जाताहै । एकदम रोगोंका हेतु आदि न होनेसे रोगका उत्पन्न न होना अभाव कहा जाताहै । हेतु आदिकोंसे रोगका प्रगट होजाना निवृति कहा जाताहै इन सबके कारणोंको संक्षेपसे कहाहै । . अथवा निदान,दोष दूष्य विशेषों करके विकारोंका विघात,भाव अंभावं, प्रतिविशेष ' आदिसे रोगोंके विभाग कियेगयेहैं॥३॥ . . . .