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निदानस्थान-१० ५.
(४६३ माणित, मछली, मूलिये,मकोहका-शाक, इनका सदैव अधिक सेवन करनेसे अजीणमें भी भोजन करनेसे और अधिक भोजन करनेसे, दूधके साथ चिलिचिमनामक मछली खानेसे तथा हायनक, यवक, चीनक, कोद्रव, उद्दालक आदि धान्याका दूध मछली आदि संयोग सहित निरन्तर अधिक खानेसे, दूध, दही,छाछ, कुल्थी, वेर, उडद, अलसीका यूष, करडका तैल इन सबके अत्यन्त सेवन करनेसे एवम अधिक संतर्पण, मैथुन, व्यायाम तथा अन्य संतापकारी वस्तुओंके सेवन करनेसे और भय, श्रम,संताप इनसे व्याकुल हुआ मनुष्य सहसा शीतल जल पोवे अथवा शीतल जलमें तैरने लगजाय उससे विदग्धकारी आहारके सेवनले अथवा विदग्ध हुए आहारको उखाडकरके विदाही पदार्थोंका सेवन करनेसे एवम् आय हुए वमनके वेगको रोकनेसे, शरीरको अत्यन्त स्नेहन करनेसे वातादि तीनों दोष एकसाथ कुपित होजातेहैं । फिर वह कुपित होकर त्वचा आदि चारों धातुओंको शिथिल करदेतेहैं । उन शिथिल धातुओंमें कुपित हुए दोष प्रवेश करके उनके स्थान विश. षोंमें प्राप्त होकर रहतेहुए उन त्वचा, मांस आदिको विगाडते हुए कुष्ठोंको उत्पन्न करतेहैं ॥ ८॥
कुष्ठके पर्वरूप। तत्रेमानिपूर्वरूपाणि ॥ तद्यथाअस्वेदनमतिस्वेदनंपारुष्यमतिश्लक्ष्णतावैवयंकण्डूनिस्तोदःसुप्ततापरिदाहःपरिहर्षोलोमहर्षोखरत्वमुष्मायणंगौरवंश्वयथुवासपांगमनमभीक्षणकायच्छिद्रेषूपदाहःपक्कदग्धदष्टक्षतोपस्खलितेष्वतिमात्रंवेदनास्वल्पानामपिच व्रणानांदुष्टिरसंरोहणश्चेतितेभ्योऽनन्तरंकुष्ठानिजायन्ते ॥९॥
उन कुष्ठों के पूर्वरूप यह है । जैसे पसीनाका न आना अथवा अधिक आना. त्वचाका अत्यन्त कठोर होना या अधिक नरम होजाना,एवम त्वच का रंग बिगडजाना, खाज, पीडा, शून्यता, दाह और हर्षण इन सबका शरीरमें होना,रोमहर्ष, शरीरका खदरापन बचामें गर्मीकी अधिकता, शरीरमें भारीपन, सूजन, विसर्परोगका होना, शरीरके रोम मागॉमें तथा अन्य छिद्रोंमें निरन्तर दाहकां होना और शरीरमें यदि कोई जखम या आगसे दग्ध अथवा किसी जानवरके काटनेसे जखम होजाय तो उसमें अत्यन्त पीडा होना और छोटी २ फुसिये होकर उनमें भी काटन तथा दागनेकीसी दाह और पीडा होना और उन छोटे २ व्रणोंका भी