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निदानस्थान-अ० ६. (४७१)
शोषमें उपदेश । ततःसोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैशनैरुपशुष्यति । त
स्मात्पुरुषोमतिमान्बलमात्मनःसमीक्ष्यतदनुरूपाणिकर्माण्या. रभेतकर्तुम् । बलसमाधानंहिशरीरंशरीरमूलश्चपुरुषइति ॥५॥
फिर वह मनुष्य इन शोषणकर्ता उपद्रवों द्वारा पीडित हुआ धीरे धीरे सूख जाताहै । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने वलकी परीक्षा करके उसके अनुरूप कर्मोको ही आरम्भ करना चाहिये। क्योंकि बल ही शरीरका आश्रय है और मनुध्यका जविन शरीरके अधीन होताहै ॥५॥
तत्रश्लोकः । साहसंवर्जयेत्कर्मरक्षजीवितमात्मनः।
जीवन्हिपुरुषस्त्विष्टकर्मणःफलसश्नुते ॥६॥ यहां एक श्लोक है कि बुद्धिमान मनुष्य अपने जीवनकी रक्षा करताहुआ बहुतं साहसके कर्मको त्याग देवे क्योंकि पुरुषोंके वांछित कोका फल जीवन ही होता है अर्थात् संपूर्ण सुखोंका मूल जीवन है उस जीवनके रहनेपर ही मनुष्य अपने शुभ, काँका फल भोग सकताहै ॥६॥ • दूसरा कारण संधारण-शोषका कारण कथन कियाहै सो उसकी व्याख्या करतेहैं।
सन्धारणजन्य शोषका वर्णन । सन्धारणशोषस्यायतनमितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः। यदा .. पुरुषोराजसमापेभर्तृसमीपेवागुरोर्वापादमूलेयूतसमांसभाजयन्स्त्रीमध्यवानुप्रविश्ययानैर्वाप्युच्चावचैर्गच्छन्भयात्प्रसंगाद्धी. मत्वाणित्वादानिरुणद्धयागतानिवातमूत्रपुरीषाणितस्यसन्धारणाद्वायुःप्रकोपमापयते ॥७॥ जब पुरुष राजाके समीप अथवा मालिकके समीप या गुरु आदिकोंके चरणोंके समीप अथवा जूआ आदि किसी खेलमें बैठे हुए या किसी संभा एवम् खियोंमें बैठकर या किसी ऊंची नीची सवारी आदिमें चलते हुए अथवा भयसे या किसी
और प्रसंगसे या उपरोक्त सभा आदिकोंमें लज्जाके मारे अथवा घृणासे वात, मूत्र, पुरीष आदिक वेगोंको रोक लेता है तो उसके शरीरमें वायु कोपको प्राप्त होजाताहै ॥ ७॥