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६.४७६) चरकसंहिता--भा० दी। तत्रवातःशूलमङ्गमर्दकण्ठोद्धंसनपार्श्वसंरोजनमंसावमर्दनस्वरभेदप्रतिश्यायञ्चोपजनयति । पित्तंपुनज्वरमतीसारसान्तर्दाहञ्चश्लेष्माप्रतिश्यायंशिरसोगुरुत्वंकासमरोचकञ्च ॥१८॥ उनमें वायु कोपको प्राप्त होकर शूल, अंगमर्द, कण्ठका बैठना, दोनों पावोंमें पीडा, मांसभा क्षय होना, स्वरभङ्ग और प्रतिश्यायको उत्पन्न करता है । एवम् पित्त कुपित होकर ज्वर, अतिसार और देहमें अंतर्दाह इनको उत्पन्न करताहै तथा कफ कुपित होकर प्रतिश्याय, शिरका भारीपन,खांसी और अरुचिको उत्पन्न करताहै१८
स कासप्रसादुरसि क्षते शोणित ष्ठीवति । शोणितगमनाचास्य दौविल्यमुपजायते । एवमेते विषमाशनोपचिता दोषा राजयक्ष्माणमभिनिर्वर्त्तयन्ति ॥ १९॥ . फिर खांसी होनेके कारण छातीमें घाव उत्पन्न होकर रक्त थूकमें आनेलगताहै। उस रक्तके निकलनसे मनुष्यके शरीरमें दुर्वलता उत्पन्न होजातीहै । इस प्रकार विषमाशनसे संचित हुए दोष राजयक्ष्माको प्रकट करते हैं ॥ १९ ॥
. विषमाशनशोषमें कर्तव्यता। • सतैरुपशोषणैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैःशनैरुपशुष्यति । तस्मात्
पुरुषोमतिमान प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेशकालोपयोगसंस्थोपशयादविषमाहारमाहरोदिति ॥ २०॥ फिर वह मनुष्य उनः शोषणकर्ता उपद्रवों द्वारा धीरे २ सूख जाताहै । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको प्रकृति, करण, संयोग, राशि, देश, काल, उपयोग, संस्था, एवम् उपशय इनसे अविपरीत अर्थात् इनके अनुकूल भोजन करना चाहिये ॥२०॥
__ तत्र श्लोकः । ... हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः। पश्य. नरोगान् बहून् कष्टान बुद्धिमान् विषमाशनादिति ॥ २१॥
यहांपर एक श्लोक है कि बुद्धिमान् मनुष्यको हितभोजी, मितभोजी, कालभोजी एवम् जितेन्द्रिय होनाचाहिये । क्योंकि विषमाशनसे अनेक प्रकारके कष्ट उत्पन्न होतेहैं ॥ २१॥
राजयक्ष्मानामका कारण । एतैश्चतुर्भिः शोषस्यायतनैरभ्युपसेवितैर्वातपित्तश्लेष्माण एव