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चरकसंहिता - भा० टी० ।
अथास्यशुक्रक्षयाच्छोणितप्रवर्तनाच्च सन्धयः शिथिलीभवन्ति । रौक्ष्यमुपजायते । भूयः शरीरे दैवल्य माविशतिवायुः प्रकापेमापद्यते । सप्रकुपितोऽवशकंशरीरमनुसर्पन्परिशोषयतिमांसशोणितेप्रच्यावयतिश्लेष्मपित्तेसंरुजतिपार्श्वेचावगृह्णात्यंसौ कण्ठसुइंसयतिशिरश्लेष्माणमुपक्लिश्यप्रतिपूरयतिश्लेष्मणासन्धीश्चप्रपीडयन्करोत्यङ्गमर्द मरोचका विपाकौचपित्तश्लेष्मोत्क्लेशात्प्रतिलोमगत्वाच्च वायुज्वरंकासंस्वरभेदंप्रतिश्यायञ्चोपजनयति ॥ १३ ॥
फिर उस मनुष्यके वीर्यके क्षीण होनेसे और रक्तकी प्रवृत्ति होनेसे संधिये शिथिल होजाती हैं तथा शरीरमें रूक्षता उत्पन्न होजाती है । और शरीर दुर्बलताको प्राप्त होजाता है । शरीर में वायुका कोप होजाता है । वह कुपित हुआ वायु उस दुर्बल शरीरमें इधर उधर फिरता हुआ मांस और रुधिरको सुखा देता है एवम् कफ और पित्तको निकालता है। दोनों पसवाडोंमें तथा दोनों असोंमें और कण्ठमें पीडाको उत्पन्न करता है । एवम् शिरको पीडन करता है और कफको बिगाडकर मस्तकमें पूरित करता है । संधियोंमें पीडा उत्पन्न करता है एवम् अरोचकता, अंगमर्द, अवि पाक इनको उत्पन्न करता है । पित्त और कफ के उत्क्लेशसे वायुकी गति प्रतिलोम होनेसे ज्वर, खांसी, स्वरभंग, प्रतिश्याय इनको प्रगट करता है ॥ १३ ॥ वीर्य की रक्षामें उपदेश.
ततः
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सोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवैरुपद्रुतः शनैः शनैरुपशुष्यति । तस्मात्पुरुषोमतिमानात्मनः शरीरमनुरक्षशुक्रमनुरक्षेत् । पराह्येषाफलनिर्वृत्तिराहारस्येति ॥ १४ ॥
फिर वह मनुष्य इन शोषणकारक उपद्रवों द्वारा पीडित हुआ धीरेधीरे सूख जाता है | इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको शरीरकी रक्षाके लिये वीर्यकी भी रक्षा करनी चाहिये । क्योंकि वीर्यं शरीरमें आहार द्रव्योंका सर्वोत्तम और अन्तिम फलहोताहै ॥ १४ ॥
तत्रश्लोकः । आहारस्य परंधामशुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः । क्षयेद्यस्य वहून्रोगान्मरणंवानियच्छति ॥ १५ ॥