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चरकसंहिता-भा०टी०। । सप्रकुपितःपित्तश्लष्माणौसमुदीयोवमधस्तिय॑क्चविहरति ततश्चशिविशेषेणपूर्ववच्छरीरावयवविशेषप्रविश्यशूलंजनयति । भिनत्तिपुरीषमुच्छोषयतिवा, पार्श्वेचाभिरुजतिगृह्णात्यंसौकण्ठमुरश्चावधमतिशिरश्चोपहन्ति, कासंश्वासज्वरस्वरभेदप्रतिश्यायञ्चोपजनयति ॥८॥ . फिर वह कुपित हुआ वायु पित्त और कफको उठाकर पूर्वोक्त क्रमसे ऊपर, नोचे, तिरछा तथा भिन्न २ अंशोंसे शरीरके भिन्न २ भागों में प्रवेश करके पीडाकों उत्पन्न करताहै। और मलको पतला करके निकालता है अथवा सुखादेताहै । दोनों पार्श्वभागोंमें शूलको करताहै एवम् अंसनामक कंधोंसे ऊपरके स्थानमें (हंसलीमें) पीडाको करताहै एवम् छातीमें पीडा उत्पन्न करताहै । शिरमें दर्दको करताहै और कण्ठको पीडायुक्त बनाताहै तथा खांसी, श्वास, ज्वर, स्वरभेद, प्रतिश्याय इनकों उत्पन्न कर देताहै ॥८॥ ततःसोऽप्युपशोषणैरेतैरुपद्रवरुपद्रुतःशनैःशनैरुपशुष्यति। . तस्मात्पुरुषोमतिमानात्मनःशरीरेष्वेवयोगक्षेमकरेषुप्रयतेतवि
शेषेणशरीरंह्यस्यमूलंशरीरमूलश्चपुरुषइति ॥ ९॥ ' फिर वह इन शोषणकर्ता उपद्रवोद्वारा धीरे धीरे शरीरको सव धातुओंकों सुखा डालताहै । इस लिये बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरके योग और क्षेमकी इच्छा करते हुए मल मूत्रादि वेगोंको नहीं रोकना चाहियोक्योंकि शरीरके आधार ही पुरुषका जीवन है इसलिये शरीरकी रक्षा करना सबसे मुख्य धर्म है ॥ ९॥
तत्रश्लोकः। सर्वमन्यत्परित्यज्यशरीरमनुपालयेत्।।
. तदभावेहिभावानांसर्वाभावशरीरिणामिति ॥१०॥ यहाँपर एक श्लोक कहा है कि अन्य सब आडम्बरोंको छोडकर शरीरको ही पालन करना चाहिये क्योंकि शरीरके नष्ट होनेसे संपूर्ण सम्पत्तियोंका भी अभाव होजाताहै ॥ १० ॥
क्षयशोषका वर्णन । . . क्षयःशोषस्यायतनभितियदुक्तंतदनुव्याख्यास्यामः। यदापु
रुषोतिमात्रंशोकचिन्तापरीतहृदयोभवति, ईर्षोत्कण्ठाभय- ;