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चरकसंहिता - भा० टी० ।
ऐसी अवस्थामें कुष्ठी को ये उपद्रव दुःख देते हैं। जैसे राधका स्राव, अंगोंका भेदन, अंगुली आदि अंगका गिरना, प्यास, ज्वर, अतिसार, दाह, दुर्बलता, अरुचि और अन्नका न पचना इत्यादि असाध्य उपद्रव हो जाते हैं ॥ २१ ॥
तत्रश्लोकाः । साध्योऽयमितियः पूर्वन रोरोगमुपेक्षते । सकिञ्चित्कालमासाद्यमृतएवावबुध्यते ॥ २२ ॥
यहां पर श्लोक हैं कि जो मनुष्य रोगको साध्य समझकर उसका यत्न नहीं करते और यह कहते हैं कि अभी क्या है जब अवकाश मिलेगा तव यत्न कर लेंगे । ऐसे मनुष्य कुछ कालके अनन्तर मरे हुए ही दिखाई पडते हैं ॥ २२ ॥ यस्तुप्रागेव रोगेभ्यो रोगेषुतरुणेषुच ।
भेषजं कुरुते सम्यक्सचिरंसुखमश्नुते ॥ २३ ॥
जो मनुष्य रोगोंसे प्रथम ही अथवा रोग होनेपर भी शीघ्र यत्न कर लेते हैं वह शरीर सुखको सुखपूर्वक भोगते हैं ॥ २३ ॥
यथास्वल्पेन यत्नेनच्छिद्यतेतरुणस्तरुः । सएवातिप्रवृद्धस्तुन सुच्छेयतमोभवेत् ॥ २४ ॥ एवमेवविकारोऽपितरुणः साध्यतेमुखम् । विवृद्धः साध्यतेकच्छ्रादसाध्योवापिजायते ॥ २५ ॥
जैसे छोटासा वृक्ष साधारण यत्न करनेसे झट उखड़ सकता है और अधिक बडा होजानेसे उखाडना कठिन होजाता है । उसी प्रकार रोग भी वल पानेके पहिले सुखपूर्वक निवृत्त होजाता है । वही रोग वृद्धिको प्राप्त होनेसे कष्टसाध्य अथवा असाध्य होजाता है ॥ २४ ॥ २५ ॥
संख्याद्रव्याणिदोषाश्च हेतवः पूर्वलक्षणम् ।
रूपाण्युपद्रवाश्वोक्ताः कुष्ठानां कोष्ठिकेपृथक् ॥ २६ ॥
इति अग्निवेशकृतेतन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते कुष्ठनिदानं नामपञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं कि, इस कुष्ठनिदान नामक अध्याय में, कुष्ठों की संख्या, द्रव्य, दृष्यधातु, दोष, हेतु, पूर्वरूप, रूप, उपद्रव यह सब पृथक २ कथन किये हैं । २६ ।।
इति श्रीमहर्षिचरक० निदान- पं० रामप्रसाद वैद्य • भाषाटीकायां कुष्ठनिदान नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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