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निदानस्थान-अं०५. . (४६७) साके दोषसे अथवा चिकित्सा न करनेस या किसी अपचारके होजानेसे वृद्धिके माप्त होकर फैलते हुए असाध्यताको प्राप्त हो जातेहैं ॥ १८ ॥ .
उपेक्षितकुष्ठका फल ।। साध्यानामपिापेक्षमाणानामेषांत्वङ्मांसशोणितलसीकाको
थक्केदसंस्वेदजाःक्रिमयोऽभिमूर्च्छन्ति । तेभक्षयन्तोत्वगादी. नदोषान्पुनर्दूषयन्तःइमानुपद्रवान्पृथक्पृथगुत्थापयान्ति ॥१९॥
साध्य कुष्ठोंमेंभी शीघ्र यत्न न करनेसे त्वचा, मांस, रुधिर और लसीका इन सबके सडने और क्लेद तथा पसीने आदिसे कृमि उत्पन्न होजातेहैं । वह काम कुष्ठीको हुए फिर सचा आदिकोंको दूषित करतेहैं और नीचे लिखे हुए इन उपद्रवोंको अलग २ उत्पन्न करते हैं ॥ १९ ॥
प्रकुपितदोषोंके उपद्रव। ततोवातःश्यावारुणपरुषवर्णतामपिचरौक्ष्यशूलशोथतोदवेपथुहर्षसङ्कोचायासस्तम्भसुप्तिभेदभङ्गान् । पित्तंपुनहिस्वेदक्लेदकोथकण्डूस्त्रावपाकरागान् । श्लेष्मात्वस्यश्वैत्यशैत्यस्थैर्यकण्डून्गौरवोत्सेधोपस्नेहोपलेपान् । क्रिमयस्त्वगादींश्चतुरःशिराः स्नायून्यस्थीन्यपिचतरुणानिंखांदन्ति ॥ २०॥ इन कृमियोंसे दूषित हुए त्वचा आदिकोंमें वायु कुपित होकर, कृष्णता, अरुः णता, कठोरता, रूक्षता एवम् शूल, शोथ, तोद, कम्प, रोमहर्ष, संकोच, आयास, स्तब्धता,शून्यता और भेदनकोसी पीडा तथा भग्नता इनको उत्पन्न करताहै । कुपित हुआ पित्त-दाह, स्वेद, क्लेद, सडन, खुजली, नाव, पाक और लालवर्णता इनको उत्पन्न करताहै एवम् कफ कुपित होकर शीतता, स्थिरता, खाज, भारीपन, कुष्ठमें ऊंचापन,चिकनाहट, उपलेप इनको प्रगट करताहै। और वह वढे हुए कृमि-खचा, मांस, रुधिर, लसीका, शिरा, स्नायु और पुष्टहड्डियोंको भी खाना आरम्भ करदेतेहैं ॥ २० ॥
कुपितदोषोंमें उपद्रव । अस्यामवस्थायामुपद्रवाःकुष्टिनस्पृशन्ति । तद्यथा-प्रस्रवणमङ्गभेदःपतनान्यगावयवानांतृष्णाज्वरातीसारदाहदौर्बल्यारोच. · काविपाकोश्चतद्विधमसाध्यविद्यादिति ॥ २१ ॥