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चरकसंहिता-भा० टी० दूषितसा होजाना और फिर नहीं भरना ऐसे २ उपद्रव होनेके अनन्तर कुष्ठ उत्पन्न होतेहैं अर्थात् यह कुष्ठोंके पूर्व रूप है ॥९॥
___ कपालके लक्षण। तेषामिदंवेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामविशेषविज्ञानमातद्यथा रूक्षारुणपरुषाणिविषमविसृतानिखरपर्यन्तानितनून्यवृत्तवा हिस्तनूनिसुप्तसुप्तानिहाषितलोमाचिताानिनिस्तोदबहुलानिअंल्पकण्डूदाहपूयलसीकान्याशुगतिसमुत्थानालिआशुभेदीनि जन्तुमन्तिकृष्णारुणकपालवर्णानिकपालकुष्ठानीतिविद्यात् ॥१०॥ उन सात प्रकारके कुष्ठोंकी वेदना,वर्ण,स्थान और प्रभागेके ज्ञानको यथोचित रीतिपर वर्णन करतेहैं । जैसे रूक्ष, अरुण, कठोर, विषम गतिवाले जिसका अंतका भाग खरदरा हो तथा थोडे २ ऊंचे हों, वाहरके भागमें किंचित् ऊंचे हों, छोटे २ हों, शून्यसे हों, जिनके ऊपर रोम खडे हों, प्रायः अधिक पीडा होतीहो, किंचित्, खाजयुक्त एवम् दाह, पूय (राध ) और लसीका ( मांसकासा धोवन ) ये उन जख्मोंसे निकलतेहों तथा झटपट फैलजानेवाले झट अपनी पीडाको उत्पन्न करनेवाले, कृमियुक्त काले और लालवर्णके तथा कपालके समान वर्ण युक्त इन सब लक्षणोवाले कुष्ठको कपालकुष्ठ कहतेहैं ॥ १०॥
उदुम्बरकुष्ठके लक्षण । ताम्राणिताम्ररोमराजीभिरवनद्धानिबहुलानिबहुबहलरक्तपूयलसीकानिकण्डूक्लेदकोथदाहपाकवन्त्याशुगतिसमुत्थानभेदीनिससन्तापक्रिमीण्युदुम्बरफलपक्कपर्णान्युदुम्बरकुष्ठानीति विद्यात् ॥११॥ तांबेके समान वर्णवाला तथा ताम्रवर्णके रोमयुक्त, सघन और बहुत तथा गाढी राध तथा लसीका युक्त एवम् खाज, क्लेद, सडन, जलन, पाक, इनसे युक्त शीघ्र फैलनेवाला, झट प्रगट हो जानेवाला, एवम् शीघ्र फटजानेवाला संताप और कृमियुक्त और पके हुए गूलरके समान वर्णवाला हो इन सब लक्षणोंवाले कुष्ठको उदुः म्बर कुष्ठं कहते हैं ॥ ११॥
__ मण्डलकुष्ठके लक्षण। स्निग्धानिगुरूण्युत्सेधवन्तिश्लक्ष्णस्थिरपीनपर्यन्तानिशुक्लरक्तावभासानिबहुलबहलशुक्लपिच्छिलस्रावीणिशुक्लरोमरा--.