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निदानस्थान - अ० ४.
(४५९)
पूतिमांसपिडकाअलजीविद्रध्यादयश्च तत्प्रसङ्गाद्
काविपाका: भवन्ति ॥ ४१ ॥
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अब प्रमेहके उपद्रवोंको कथन करते हैं । प्यास, अतिसार, ज्वर, दाह, दुर्बलता, अरुचि, अन्नका न पचना, मांसमेंसे दुर्गंध आना, शरीरमें पिडका होना तथा अलजी, विद्रधी आदिक प्रमेह पिडकाओंका होना यह प्रमेहके उपद्रव होते हैं ४१ ॥ साध्यप्रमेह की चिकित्साविधि ।
तत्रसाध्यानप्रमेहान संशोधनोपशमनैर्यथार्हमुपपादयेश्चिकित्सेच्चेति ॥ ४२ ॥
इनमें साध्य प्रमेहों में संशोधन और उपशमन द्रव्योंद्वारा यथोचित रीतिपर चिकित्सा करे ॥ ४२ ॥
तत्र श्लोकाः ।
गृध्रमभ्यवहार्येषुस्तानचंक्रमणाद्विषम् ।
प्रमेहः क्षिप्रमभ्येतिनी चद्रुममिवाण्डजः ॥ ४३ ॥
यहां कहते हैं कि जिस प्रकार साधारण वृक्षोंपर उडता हुआ पक्षी विना हीं प्रयास से झट आन बैठता है उसी प्रकार जो मनुष्य नित्य प्रति आहारके लोभमेंफंसे रहते हैं और नित्य खान तथा भ्रमण आदि नहीं करते उनके शरीर में प्रमेहभी झट अधिकार जमा बैठता है ॥ ४३ ॥
मन्दोत्साहमतिस्थूलमतिस्निग्धंमहाशनम् ।
मृत्युः प्रमेहरूपेणक्षिप्रमादायगच्छति ॥ ४४ ॥
आलस्ययुक्त तथा अत्यन्त स्थूल और अधिकस्निग्ध शरीरवाले एवम् बहुतखानेवाले मनुष्य के शरीर में प्रमेहके रूपको धारण करके मृत्यु झट प्रवेशकर लेता है४४यस्त्वाहारंशरीरस्यधातुसाम्यकरंनरः ।
सेवतेविविधाश्चान्याश्चेष्टाः स खमश्नुते ॥ ४५ ॥
जो मनुष्य शररिकी धातुओंको साम्यावस्थामें रखनेवाले आहार विहारोंका सेवन करता है वही मनुष्य परंमंसुखको भोग करताह ॥ ४५ ॥
- तत्र श्लोकाः । हेतुव्याधिविशेषाणांप्रमेहाणाञ्चकारणम्। दोषधातुसमायोगो रूपविविधमेवच ॥४६॥ दशश्लेष्मकृतायस्मात्प्रमेहाः षट्चपि