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(४५८) चरकसंहिता-भा० टी०।
जो मनुष्य मत्तहस्तीके समान निरन्तर बहुत मूता करताह उसको हस्तिमेहीं. कहतेहैं । यह वातजनित हस्तिमेह भी असाध्य होताहै ॥ ३७॥
मधुमहाके लक्षण । कषायमधुरंपाण्डंरक्षमेहतियोनरः । वातकोपादसाध्यंतंप्रतीयान्मधुमेहिनम् ॥ ३८॥ जो मनुष्य कषाय,मधुर, रूक्ष एवम् पाण्डुवर्णका मूत्र मूतता है उसको वातके कोपसे उत्पन्न हुआ असाध्य मधुमेह जानना ॥ ३८॥
इतिचत्वारःप्रमेहावातप्रकोपनिमित्ताः । तेएवंत्रिदोषप्रकोपनिमित्ताविंशतिप्रमेहाव्याख्याताः ॥ ३९॥ इस प्रकार वायुके कोपसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके प्रमेहोंका वर्णन कियाहै।' वह सब मिलकर तीनों दोषोंके कोपसे उत्पन्न हुए बीस प्रकारके प्रमेहोंका कथन किया है ॥ ३९॥
___त्रिदोषजन्य प्रमेहके पूर्वरूप । त्रयस्तुदोषाःप्रकुपिताम्प्रमेहानभिनिवर्तयिष्यन्तइमानिपर्वरूपाणिदर्शयन्ति ।
तद्यथा । जटिलीभावकेशेषुमाधुयमास्यकरपादयोःसुप्ततांदाहमुखतालु: कण्ठशोषंपिपासामालस्यंमलञ्चकायेकायच्छिद्रेषपदहेंपरिदाहं सुप्ततांचाङ्गेषुषट्पदपिपीलिकाभिःशरीरमूत्राभिसरणंमूत्रे । ' चमूत्रदोषान्वितंशरीरगन्धंनिद्रांतन्द्राञ्चसर्वकालमिति ॥४०॥ यह तीन वातादि दोष ही कुपित होकर प्रमेहोंको उत्पन्न करतेहुए इन पूर्वरूपोंको करतेहैं । उन रूपोंको दिखातेहैं । जैसे बालोंकी जटे बन्धना, मुखमें मीठापन, हाथपैरोंका सोना, दाह, मुख, तालु और कण्ठका सूखना, प्यास, आल. स्य, शरीरमें मैलका बहुत वढना, रोममार्गोका बन्द होना, शरीरमें दाह होना,
अंगोका सोजाना, मक्खिये और चीटियोंका शरीरपर बहुत आना तथा मूत्रम · लगना, शरीरसे मूत्रकीसी गंध आना, सब कालमें निद्रा तथा तन्द्राकी अधिकता रहना यह सब प्रमेहके पूर्वरूप होते हैं ॥ ४० ॥
प्रमेहके उपद्रव । उपद्रवास्तुखलुप्रमेहिणांतृष्णातीसारज्वरदाहदौर्बल्यारोच