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चरकसंहिता - भा० टी० ।
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को कफके कोपका निदान अर्थात् हेतु माना गया है । अपने कारणोंसे बढाहुआ कफ मेद आदि धातुओंको दूषित करता है इसलिये उसको दोष कहते हैं । उस दोषद्वारा द आदि धातुएं दूषित होती हैं इसलिये उनको हृष्य कहा जाता है ॥ ५ ॥ प्रकुपित कफ के कर्म । त्रयाणामेषां निदानादिविशेषाणांसन्निपातेक्षिप्रश्लेष्माप्रकोपमापद्यते प्रागतिभूयस्त्वात् । सप्रकुपितः क्षिप्रमेवशरीरे विसृप्तिं लभते शरीरशैथिल्यात्सविसर्पनशरीरे मेदसैवादितामिश्रीभावं गच्छति । मेदसश्चैववहुबद्धत्वान्मेदसश्चगुणानां गुणैः समानगुणभूयिष्ठत्वात्स मेदसा मिश्रीभावंग-: च्छन्दूषयत्येतद्विकृतत्वात्सविकृतो दुष्टेनमेदसोपहितः शरीरक्लेदमांसाभ्यांसंसर्गगच्छति । क्लेदमांसयोरतिप्रमाणाभिवृद्धित्वात्समां से मांसप्रदोषात्पूतिमांसपिडकाः शराविकाकच्छपिकाद्याः संजनयतिअपकृतिभूतत्वाच्छरी रक्लेदंपुन र्दूषयन्मूत्रत्वेनपरिणमयति। मूत्रवहाणांस्त्रोतसांर्वक्षणवस्तिप्रभवाणांमेदःक्लेदोपहितानि गुरूणिमुखान्यासाद्यप्रतिरुध्यते । ततःस्थैय्यं साध्यतांवाजनयतिप्रकृतिविकृतिभूतत्वात् ॥ ६ ॥ शररिक्लेदस्तुश्लेष्म मे दोमिश्रः प्रविशन्मूत्राशयेमूत्रत्वमापद्यमानः श्लैष्मि कैरेभिर्दशभिर्गुणैरुपसृज्य तेवैषम्यहानिवृद्धियुक्तैः । तद्यथाश्वेतशीत मूर्त्तपिच्छिला च्छस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रप्रसाद गन्धैस्तत्रयेन गुणेनैकेनानेकेनवाभूयस्तरमुपसृज्यते तत्समाख्यंगौ- . नामविशेषंप्राप्नोति ॥ ७ ॥
इन निदान और दोष तथा दूष्यों के संयोग से कफ कुपित होता है क्योंकि वह प्रथम ही अधिकतायुक्त होता है । वह कुपित हुआ कफ सम्पूर्ण शरीर में झट फैल जाता है। शरीरकी शिथिलतासे इधर उधर फिरता हुआ वही कफ पहिले मेदमें मिलजाता है फिर मेदके बहुत और बध्य होनेके कारण तथा मेदके समान गुणवाला होने से वह कफ मेद में मिलकर मेदको बिगाड देता है । फिर विकृत हुए मेदकेसंयोगसे शरीर के क्लेद और मांसमें मिलजाता है। उस क्लेद और मांसके अत्यन्त
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