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चरकसंहिता - भा० टी० ।
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नहीं आता और जिनको शास्त्र आता है उनमें यह दुष्ट भग्व नहीं होते। इस लिये उन 'शास्त्रनिंदकों को कालकी फांसी के समान दूरसे ही त्यांग देनाचाहिये ७९ ॥७६ • सेवनीय वैद्यं । प्रशमज्ञानविज्ञान पूर्णाः सेव्याभिषक्तंमाः ॥ ७७ ॥ समदुःखमायातमविज्ञानेंद्रयाश्रयम् । सुखंसमग्रविज्ञाने विमलेचप्रतिष्ठितम् ॥ ७८ ॥
जो वैद्य प्रशम अर्थात् रोगनाशक शास्त्र के ज्ञानी है एवम् चिकित्सा सम्बन्धी संपूर्ण विषयोंके विज्ञान से पूर्ण हैं ऐसे योग्य पुरुषों का नित्य सेवन करना चाहिये । क्योंकि संसार में संपूर्ण दुःख अज्ञ नसे और संपूर्ण सुख निर्मल ज्ञानसे प्राप्त होते हैं तात्पर्य यह हुआ कि अज्ञान में संपूर्ण दुःख प्रतिष्ठित रहते हैं और निर्मल ज्ञानमें संपूर्ण सुख प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ ७७ ॥ ७८ ॥
इदमेव सुदारार्थमज्ञानार्थप्रकाशकम् । शास्त्रष्टप्रनष्टानां यथैवादित्यमण्डलमिति ॥ ७९ ॥
जैसे नष्टाष्टे अर्थात् चक्षुद्दीन मनुष्योंकोः सूर्यसे प्रकाशके कुछ लाभ नहीं पहुँच सकता उसी प्रकार मूर्खोको इस बहुमूल्य आयुर्वेदशास्त्रसे कुछ लाभ नहीं पहुंचसकता अथवा जैसे योगदृष्टिहीन मनुष्योंके लिये और धर्मदृष्टिहीन मनुष्यों के लिये. सूर्यका प्रकाश उनके कार्यकी ' सहायताका कारण होता है उसी प्रकार यथार्थ. ज्ञानहीन मनुष्यों को आयुर्वेदको एकाधवात सीखलेना लोगोंको ठगने में सहायताकारक होता है ।। ७९ ।।
तत्रश्लोकाः ।
अर्थे दशमहामूलाः संज्ञास्तेषांयथाकृताः । अयनान्ताः षडग्याश्चरूपंवेदविदाञ्चयत् ॥ ८० ॥ कश्चाष्टकश्चैव परिप्रश्नः सनिर्णयः । यथावाच्यंयदर्थञ्चषडिधाश्चैकदेशिकाः ॥ ८१ ॥ अर्थे दशमहामूलेसर्वमेतत्प्रकाशितम् । संग्रहश्चैव मध्यायस्त*न्त्रस्यास्यैव केवलः ॥ ८२ ॥ -
यहां पर अध्यायकी पूति में इलोक हैं: - इस अर्थदशमूलीय अध्याय में महादशमूलोंकी संज्ञा, स्थान, छः अंग, आयुर्वेद के जानने वालों का स्वरूप, सप्तक तथा अष्टक प्रश्नावली की मीमांसा कथन करनेका निर्देश और अर्थ षड्विध तथा एकदेशिक