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(४३०.). चरकसंहिता-मा० टी०।
धयः। तथादारुणाबहूपद्रवादुश्चिकित्स्यायथायमिति । सर्वरोगाधिपतिवर नानातिर्यग्योनिषुबहुविधैःशब्दरभिधीयते सर्वप्राणभृतश्चसज्वराएवजायन्तेसज्वराएवम्रियन्तेसमहामोमोहातेनाभिभूताःप्राग्दैहिकंदेहिनःकर्मकिञ्चिन्नस्मरन्तिसवप्राणिभ्यश्चज्वरएवप्राणानादत्ते ॥३८॥ अब ज्वरकी उत्पत्ति और उसके नामादिकोंका वर्णन करते हैं । ज्वर महादेवके कोपसे उत्पन्न हुआहै । और सब प्राणियों के प्राणों को हरनेवाला देह, इन्द्रिय, मन इनको तपायमान करनेवाला बुद्धि, वल, वर्ण,हर्ष, उत्साह इनको नष्ट करनेवाला है । पीडा, थकावट, घबराहट, माह इनको करनेवाला है तथा आहारका उपरोध. करनेवाला है । शरीरको जर्जर करदेताहै इसलिये इसको ज्वर कहतेहैं । अन्य व्याधियां इस प्रकार दारुण और बहुतसे उपद्रवोंवाली एवम् दुश्चिकित्स्य नहीं होती जिस प्रकार यह ज्वर है ज्वर सब रोगोंका राजा हैऔर अनेक प्रकारकी पशु . आदि योनियों में अनेक नामोंसे कहा जाताहै । संपूर्ण जीवमात्र ज्वरसहित जन्म लेतेहैं और मरनेके समय भी ज्वरसहित प्राणोंको त्यागते, ज्वररूप महामाहसे व्याप्त हुआ मनुष्य जन्मके समय पूर्वजन्मकी किसी बातको भी स्मरण नहीं कर सकता यह ज्वरही संपूर्ण प्राणियोंके प्राणोंको आकर्षण करताहै अर्थात् ग्रहण करताहै ॥ ३८॥
___ ज्वरक पूर्व में कर्तव्य कर्म। तत्रास्यपूर्वरूपदर्शनेज्वरादौवाहितलध्वशनमतर्पणवाज्वरस्या- :
माक्षयसमुत्थत्वात् ॥ ३९॥ " क्योंकि ज्वर आमाशयसे उत्पन्न होताहै इसलिये ज्वरके पूर्वरूप दिखाई देते ही अथवा ज्वरके.आदिमें हित और हलके भोजन अथवा अतर्पण (लंघन )करना चाहिये ॥ ३९॥
ज्वरमें कर्तव्य । • ततःकषायपानाभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिषेकानुलेपनवमनविरेचनास्थापनानुवासनोपशमननस्तःकर्मधूपधूमपानाञ्जनक्षीरभोजनविधानम् ॥४०॥
ज्वर उत्पन्न होनेपर काथ पीना, ज्वरनाशक तेलका मलना, पसीना देना एवम् 'लेप, परिषेक, अनुलेपन, वमन.विरेचन, आस्थापन, अनुवासन, उपशमन, नस्य,