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निदानस्थ.न-अ० २.
(४३७) क्योंकि पित्तको हरण करनेके लिये वमन कराना श्रेष्ठ नहीं होता और अधोमार्गगामी रक्तपित्तमें वायुका संसर्ग होनेसे उसकी शान्तिके लिये वमन कराना उचित होताहै । एवम् तिक्त,कषाय पदार्थोदारा पित्त शान्त होताहै परन्तु वायु शान्त नहीं होता इसालये अधोगामी रक्तपित्त चिकित्सामें कठिनाई पडनेसे याप्यसाध्य होताहै। क्योंकि अधोगामी रक्तपित्तमें यथोचित रीतिपर वमन भी नहीं करासकते । . और तिक्त, कषाय द्रव्योंद्वारा भी यथोचित रीतिपर शान्त नहीं करसकते । इसलिये इसको याप्यसाध्य मानत ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५॥
रक्तपित्तन्तुयन्मार्गोंद्वावपिप्रतिपद्यते । असाध्यमपितज्ज्ञयंपू. वोक्तादपिकारणात् ॥१६॥ नहिसंशोधनकिञ्चिदस्त्यस्यप्रतिमार्गगम् । प्रतिमार्गश्चहरणंरक्तपित्तेविधीयते । एवमेवोपशमनसर्वशोनास्थविद्यते ॥ १७ ॥ संसृष्टेषुचदोषेषुसर्वजिच्छमनं मतम् ॥ १८॥
जो रक्तपित्त दोनों मार्गोंसे प्रवृत्त होताहै वह ऊपर कहेहुए कारणोंसे असाध्य . होताहै । क्योंकि ऊर्ध्वगामी होनेसे इसमें वमन नहीं कगसकते और अधोगामी होनेके कारण विरेचन नहीं करासकते इसलिये दोनों मार्गोंद्वारा उभयगामी रक्तपित्तमें शोधनक्रिया नहीं होसकती अतएव सर्वथा इसका कोई उपाय शान्तिकारक नहीं होता । सब दोषोंसे मिलेहुए रक्तपित्तमें सर्वतः शान्तिकारक औषधियोंका सेवन हितकर होताहै एवम् सब प्रकारसे उभयंगामी रक्तपित्तको जीतनेके लिये औषधियें भी अपना काम नहीं करसकती इसलिये इसको असाध्य मानाहै१६-१८॥
इत्युक्तंत्रिविधोदकरमार्गविशेषतः ॥ १९ ॥ इस प्रकार मार्ग विशेषसे रक्तपित्तके तीन भेद कथन कियेहैं ॥ १९॥
साध्यरोगको असाध्य होनेका कारण । • एश्यस्तुखलहेतुभ्यःकिञ्चित्साध्यनसिध्यति । प्रेष्योपकरणा. .
भावाद्दौरात्म्याद्वैद्यदोषतः। अकमतश्चसाध्यत्वंकश्चिद्रोगोऽतिवर्चते ॥ २०॥
चार हेतुओंके अच्छा न होनेसे कोई भी रोगसाध्य नहीं रहता वह चार हेतु यह हैं। परिचारक अच्छान होनेसे,औषधी आदि उपकरण अच्छा न होनेसे,रोगीका स्वभाव अथवा आचार अच्छा न होनेसे, एवम् वैद्यके दोषसे साध्य रोग भी असाध्य होजातेहैं । तथा यत्न न करनेसे भी साध्यरोग कोई ही शान्त होताहै अर्थात साध्यरोग भी विना उपाय किये शान्त होना कठिन होताहै ॥ २०॥ .