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(४४२) चरकसंहिता-मा० टी० । अंगमर्द तथा गर्दन, शिर,कनपट्टी इनमें पीडा होना,बद निकलना आदि उपद्रवोंसे रोगीका पीडित होना एवम त्वचा, नख, नेत्र, मुख, मूत्र, मल ये सब कालरंग तथा लालरंग एवम कठोर होजाना तथा निदानम कहे हुप कारणोंसे रोगका वढना उससे विपरीत द्रव्योंके सेवनसे रोगका शान्त होना यह सव लक्षण वातजगुल्मके होतेहैं ॥६॥
वायुपित्तप्रकोपका कारण । तैरेवतुकर्षणैःकर्षितस्याम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णशुष्कव्यापन्नमद्यहरितकफलाम्लानांविदाहिनाञ्चशाकमांसानामुपयोगादजीर्णाध्यशनाद्रौक्ष्यानुगतेचामाशयेवमनविरेचनमतिवेलसन्धारणवातातपौचातिसेवमानस्यपित्तंसहमारुतेनप्रकोपमापद्यते ॥७॥ पूर्वोक्त वमन, विरेचन आदि कर्षणों द्वारा कर्षित हुआ मनुष्य यदिखट्टे,नमकीन, चरपरे,खारे. उष्ण, तीक्ष्ण और शुष्क पदार्थोंको खाताहै अथवा सडेहुए मद्य तथा दूषित शाक आदि एवम् खट्टेफल,विदाहकारी पदार्थ, शाक, मांस'इनका उपयोग करताहै तथा अजाणकारी पदार्थ अध्यशन (अधिक भोजन या विषम भोजन)तथा रूक्षता आदि कारणोंसे एवम् वमन, विरेचनके अतियोगसे,मल मूत्र आदि वेगोंको रोकनेसे, पवन और धूपके अत्यन्त सेवनसे पित्त-वायुके साथ कुपित हो जाताहै ७
पित्तप्रकोपसे गुल्म। . तत्प्रकुपितंमारुतआमाशयैकदेशेसवय॑तानेववेदनाप्रकारानुपजनयतियेउक्तावातगुल्मपितंतेनविदहतिकुक्षौहृद्यरतिकण्ठेवासविदह्यमानःसधूममिवोद्भारमुद्रित्यम्लान्वितंगुल्मावकाशश्चास्यदह्यतेदूयतेधूप्यतेउष्मायतस्विद्यतिक्लिद्यतिमृदुशिथिलइवचास्पर्शासहोऽल्परामाश्चोभवतिज्वरभ्रमदवथुपिपासागलवदनतालुशोषप्रमोहविड्भेदाश्चभवन्ति। हरितहारिद्रत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषञ्चभवतिनिदानोक्तानिचास्यनोपशेरतेविपरीतानिचास्यचोपशेरततिपित्तगुल्मः ॥८॥ उस कुपितहुए पित्तको वायु आमाशयके एकदेशमें अर्थात् ग्रहणाविभागमें प्राप्त कर वातगुल्ममें कही हुई संपूर्ण पीडाओंको प्रगट करता है। और पूर्वोक्त प्रकारसे: