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चरकसंहिता--भा० टी०॥ तत्रासाध्यत्वमेकंस्यात्साध्ययाप्यपरिक्रमात् ।
रक्तपित्तस्यविज्ञानमिदंतस्योपदेक्ष्यते ॥ २१ ॥ साध्य, याप्यसाध्य और असाध्य इन तीनोंमें असाध्यता सिर्फ एक प्रकारकी होतीहै अर्थात् असाध्यरोगका यत्न नहीं होसकता । साध्य और याप्यसाध्यकी क्रमपूर्वक चिकित्सा हो सकतीहै । इसलिये रक्तपित्तकी असाध्यताके लक्षण कथन करतेहैं ॥२१॥
असाध्यके विशेष लक्षण । यत्कष्णमथवानीलंयद्वाशक्रधनुष्प्रभम् । __ रक्तपित्तमसाध्यंतद्वाससोरञ्चनञ्चयत् ॥ २२ ॥ जो रक्तपित्त काला, नीला,इन्द्रधनुषके समान वर्णवाला, होताहै वह असाध्य जानना । एवम् जिसमें रंगाहुआ कपडा फिर स्वच्छ न होसके उसको भी असाध्य जानना ॥ २२ ॥
भृशंपूत्यतिमात्रञ्चसर्वोपद्रववञ्चयत् । - बलमांसक्षयेयच्चतचरक्तमसिद्धिमत् ॥ २३॥
जिस रक्तपित्तमें अत्यन्त दुर्गंध आवे, तथा संपूर्ण उपद्रवों सहित हो एवम् । रोगीका बल और मांस क्षीण हो वह रक्तपित्त भी असाध्य होताहै ॥ २३ ॥
येनोपहतोरक्तरक्तपित्तेनमानवः ।
पश्येदृश्यावियच्चैवतच्चासाध्यमसंशयम् ॥ २४ ॥ . जिस रक्तपित्तके होनेसे मनुष्य आकाश और संपूर्ण पदार्थोंको लालवर्णका देखे वह भी असाध्य जानना ॥ २४॥
रक्तपित्तमें कर्तव्यता। तत्रसाध्यपरित्याज्यंयाप्ययत्नेनयापयेत् । ।
साध्यश्चावहितासिद्धर्भेषजैःसाधयद्भिषक् ॥ २५ ॥ इनमें असाध्यको त्यागकर याप्यसाध्यकी यत्नपूर्वक चिकित्सा करनीचाहिये। और साध्यरक्तपित्तको सिद्ध औषधियों द्वारा जीत लेनाचाहिये ॥ २५॥ . .. . . . . तत्रश्लोको।.. . कारणंनामनिवृत्तिपर्वरूपाण्युपद्रवान् । मागौँदोषानुवन्धञ्चसा-.,
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