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निदानस्थान-अ० २.
(१३३) निनित्यंभुङ्क्तेभृशोष्णतीक्ष्णमपिचान्यदन्नजातनिष्पावमाषकुलत्थक्षारसूपोहितदधिमण्डोदश्वित्कटम्लकालिकोपहितंवाराहमाहिषाविकमत्स्यगव्यपिशितंपिण्याकपिण्डालुकशाकोपहितमूलकसर्षपलशुनकरअशिग्रुकषडयूषभूस्तृणसुमुखसुरंसकुठेरगण्डीरकालमालकपर्णासक्षवकफणिजकोपदंशंसुरासौवीरतुषोदकमैरेयमेचकमधूलककुदलबदराम्लप्रायान्नपानंपिप्टान्नोत्तरभूयिष्ठमुष्णाभितप्तोऽतिमात्रमतिवेलेवापयसासमश्नातिरोहिणीकालकपोतमांसंवासर्षपतैलक्षारसिद्धंकुलस्थमाष
पिण्याकजाम्बलकुचपक्कैः शौक्तिकैर्वा सहक्षीरमाममतिमात्रम. थवापिवत्युष्णाभितप्तस्तस्यैवमाचरतःपित्तप्रकोपमापद्यते ।
लोहितञ्चस्वप्राणमतिवर्त्तते ॥१॥ पित्त जिस प्रकार रक्तपित्त संज्ञाको प्राप्त होताहै उस प्रकारकी उसकी व्याख्या करतेहैं । जब मनुष्य-जौ, उद्दालक, कोद्रव आदिक द्रव्योंका निरन्तर सेवन करताहै एवम् अत्यन्त उष्ण और तीक्ष्ण अन्नोंको सेवन करताहै अथवा निष्पाव उडद, कुल्थी दाल आदिमें दहीका मण्ड उदश्वित् मिलाकर खाताहै अथवा चरपरे, खहे. कांजी आदिक पदार्थोंको अधिक सेवन करताहै तथा सूअर, भैंसा मेंढा, मछली, गो आदिकोंके मांसको खाताहै । तिलोंकी खली, पिंडालुका शाक एवम् पकी मूली, सरसों, लहसुन, कंजा, सुहाँजना, पडयूष, मृतृण, शाक, पर्णाश सुमुख, सरसः (तुलसीके भेद ),कुठेर,गण्डीरशाक,कालमालकशाक, फणीझक (मरुआ), उप-- देशक (चीमांसविशेषका बना पदार्थ), सुरा, सौपीर, तुषोदक, मैरेय, भेदक,. मधूलक, वेर तथा अन्य खट्टे पदार्थों का अत्यन्त सेवन करताहै। मिष्टान्नका अधिक सेवन करताहै । गर्माईसे तत मनुष्य बहुत भोजन करे एवम् भोजनका समय लंघनकर भोजन करे अथवा राहणी नामक मछली वा कालकपोतके मांसको दूधके. साथ कालकपोतके मांसको · सरसोंके तेल और क्षारके साथ सिद्ध कर खाताहै एवम् कुल्थी, उडद, तिलकल्क, जामुन, बडहरके साथ पकायेहुए दूधको अथवा इनसब वस्तुओंको कच्चे दूधके साथ वा कांजीके साथ पित्त प्रकृतिवाला मनुष्य निर• न्तर सेवन करताहै. उसके शरीरमें पित्त कोपको प्राप्त होजाताहै । एवम् रक्तं अपने. प्रमाणको छोडकर बढजाताहै ॥ १॥
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