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४२८) चरकसंहिता-भा० टी०॥ अभिघातजोवायुनादुष्टशोणिताधिष्ठानेनअभिषङ्गजःपुनर्वातपित्ताभ्याम्अभिचाराभिशापजोतुसन्निपातेनउपनिबध्यते ।
सप्तविधाज्ज्वराद्विशिष्टलिंगोपक्रमसमुत्थितत्वाद्विशिष्टोवेदि'तव्यः । कर्मणासाधारणेनचोपक्रम्यतिअष्टविधाज्वरप्रकति. रुक्ता ॥ ३४॥ चोट आदिके लगनेसे; काम क्रोधादि अभिषङ्गसे, अभिचार तथा अभिशापसे आगन्तुकज्वर उत्पन्न होताहै । आगन्तुक ज्वरके मिलानेसे ज्वर आठ प्रकारके होते हैं। आगन्तुकज्वर पहिले स्वयं प्रगट होकर पीछे वात, पित्त, कफकी सहायताको प्राप्त होताहै अर्थात् आगन्तुज व्याधि पहिले व्याधि उत्पन्न होकर पीछे वातादि दोष कुपित होते हैं । (और निज व्याधिौ पहिले वातादि दोष कुपित होकर पछि रोग उत्पन्न होता है)। अभिघात निमित्तक आगन्तुजज्वरमें वायुदूषित रुधिरका आश्रय लेकर अभिघातज्वरका सहायक बनताहै । अभिषङ्ग ज्वरमें वात
और पित्तका अनुबन्ध होता है । अभिचार और अभिशापजनित ज्वरमें तीनों दोषोंका अनुबन्ध होताहै । आगन्तुजज्वर पूर्वोक्त सात प्रकारके ज्वरोंसे लक्षण, उपाय कारणों द्वारा अलग जानना चाहिये अर्थात् वातादि सात प्रकारके ज्वरोंसे आगन्तुजज्वरके कारण, लक्षण उपाय और प्रकारके होते हैं । क्योंकि आगन्तुजज्वर उसके साधारण कारण की चिकित्सामात्रसे शान्त होजाताहै । इस प्रकार ज्वरोंकी आठ प्रकारकी प्रकृति कही है ॥ ३४ ॥
ज्वरके भेद। ज्वरस्त्वेकएवसन्तापलक्षणस्तमवाभिप्रायविशेषादाद्विविधमाचक्षतेनिजागन्तुविशेषाञ्चतत्रनिजद्विविधत्रिविधंचतुर्विधंसप्तविधञ्चाहुर्वातादिविकल्पात् ॥ ३५॥ . यद्यपि सन्तापमात्र लक्षणसे अर्थात् शरीरके तपायमान होनेसे ज्वर (ताप) एकही प्रकारका होताहै परन्तु उसीको निज और आगन्तुकभेदसे दो प्रकारका कथन करते हैं । उनमें निजज्वर एक प्रकारका तथा दो प्रकारका एवम् तीन प्रकारका और चार प्रकारका अथवा सात प्रकारका वात आदिके विकल्पसे माना
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ज्वरके पूर्वरूप।
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तस्येमानिपूर्वरूपाणि। तद्यथामुखवैरस्यगुरुगात्रत्वमनन्नाभि