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चरकसंहिता - भा० टी० ।
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चिकने, मधुर, भारी, शीतल, पिच्छिल, अम्ल, एवम् लवण पदार्थोंके खानेसे दिनमें सोनेसे, हर्षसे, परिश्रम न करनेसे इत्यादि कफवर्द्धक पदार्थोंके अधिक सेव नसे कफका कोप होता है ॥ २९ ॥
प्रकुपितकफका कर्म |
सयदाप्रकुपितः प्रविश्यामाशय मूष्मणासह मिश्रीभूतमाद्य माहारपरिणामधातुरसनामानमन्ववेत्य रसस्वेदवहानिचस्रोतांसि पिधायाग्निमुपहत्यपक्तिस्थानादूष्माणंवावहिः निरस्यप्रपीडय - नूकेवलंशरीरमुपपद्यते तदाज्वरमभिनिर्वर्त्तयति ॥ ३०॥
वह कुपित हुआ कफ आमाशय में प्रवेश करके जठराग्निकी गर्मी के साथ मिलकर आहारके परिणामरूप रस नामक धातुके साथ जाकर रस और स्वेदके वहानेवाले छिद्रोंको रोक देता है । तब जठराग्निको हनन करके पाचकाचिकी गर्मीको बाहर निकाल देता है । फिर अपना अधिकार पाकर शरीरको पीडित करताहुआ कफज्वर उत्पन्न करता है ॥ ३० ॥
कफज्वरके लक्षण |
तस्येमानिलिङ्गानि भवन्ति । तद्यथायुगपदेव केवलशरीरेज्वराभ्यागमनमभिवृद्धिर्वा भुक्तमात्रे पूर्वाह्णे पूर्व रात्रेवसन्तकालेवाविशेषेण गुरुगात्रत्वमनन्नाभिलाषः श्लेष्मप्रसेकोमुखस्यचमाधु
र्य्यहृल्लासोहृदयोपलेपस्तिमिरत्वंछर्द्दिमृद्वग्नितानिद्रायाआधिक्यंस्तम्भःतन्द्राश्वासःकासः प्रतिश्यायः शैत्यं श्वैत्यञ्चनयननखवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यर्थशीत पिडका भृशमङ्गेभ्यउत्तिष्ठति उष्णाभिप्राय तानिदानोक्तानामनुपचयोविपरीतोपचयश्चेतिश्लेष्मज्वरलिङ्गानि भवन्ति ॥ ३१ ॥
उसके ये लक्षण होते हैं शरीरमें एकदम ज्वरका प्रगट होना, भोजन करते ही पूर्वाद्धमें रात्रि के प्रथम भाग में एवम् वसन्तऋतुमें ज्वरका अधिक होना अथवा उत्पन्न होना एवम् शररिंमें भारीपन, अन्नमें अरुचि, मुखसे कफका गिरना, मुखका स्वाद मीठा होना, कफकी छर्दी होना, हृदय कफसे लिपासा प्रतीत होना, देहमें गीलापन प्रतीत होना, अग्निकी मंदता, अधिक निद्रा, स्तंभ, तंद्रा, श्वास, कास, प्रतिश्याय, शीतता, नेत्र, नख, मुख, मूत्र, पुरीष, त्वचा इनका श्वेत होना, देहमें: