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९४२०): चरकसंहिता-भाटी।
रोगकी उत्पत्तिको अर्थात् जिस प्रकार जितने अंशोंसे जिन जिन दोषोंकों लेकर शरीरके जिस . २ भागमें व्याधि उत्पन्न होती है उसको समाप्ति कहते हैं। संप्राप्ति, जाति, आगति ये सब एक ही अर्थके वाचक शब्द हैं ॥१०॥
. सम्प्राप्तिके भेद । सासंख्याप्राधान्यविधिविकल्पवलकालविशेषभिद्यते॥११॥ संख्या, प्राधान्य, विधि, विकल्प एवम् वल, कालके भेदसे संप्राप्तिके विभाग कियेगयेहैं अर्थात् संख्यादि समाप्तिके भेद हैं ॥११॥
संख्यासम्प्राप्तिके लक्षण । संख्या यथाष्टौज्वराः पञ्चगुल्माः सप्तकुष्ठान्येवमादि ॥ १२ ॥
अब संख्याके लक्षणको कहतेहैं-जैसे, आठ प्रकारके ज्वर, पांच प्रकारके गुल्म, सात प्रकारके कुछ इत्यादिक जो गणना है उसको संख्या कहते हैं ॥ १२ ॥
प्राधान्यसम्प्राप्तिके लक्षण । . प्राधान्यंपुनर्दोषाणांतरतमयोगेनोपलभ्यते तत्र द्वयोस्तरखिषु
तमइति ॥ १३॥ वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंमें-वात और पित्त अल्प होनेसे अप्रधान और कफ अधिक होनेसे प्रधान माना जाता है । इस प्रकार दोषके न्यूनाधिक योग' द्वारा प्राधान्य जानना चाहिये। जैसे-त्रिदोषज्वरमें वात अल्प.हो पित्त मध्य हो और कफ आधिक हो ता उस सन्निपातको अल्पवात, मध्य पिच, और कफ प्रधान कहाजाताहै। अथवा ज्वरातिसारमें ज्वर प्रधान है. कि अतिसार प्रधान है इस तरह पर एक कालमें एक पुरुषको दो तीन व्याधियों से जो व्याधि स्वतंत्र हो उसको प्रधान कहते हैं। और जो परतंत्र हो. उसको अप्रधान कहते हैं। इस प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ १३ ॥
विधिसम्पातिके लक्षण । विधिर्नामाद्विविधाव्याधयोनिजागन्तुभेदनत्रिविधास्त्रिदोषभेदे- ... नचतुर्विधाःसाध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेनपृथक् ॥ १४॥ . .
अव विधिके लक्षणों को कहते हैं । यथा-व्याधि दो प्रकारकी होती है. एक । निज, दूसरी आगन्तुक, फिर वह वात, पित्त, कर्फ भेद से तीन प्रकारकी है। साध्य, असाध्य, मृदु और दारुण, इन भेदोंसे चार प्रकारकी होती है. इस प्रकार रोगोंके भेदके क्रमको विधि कहते हैं ॥ १४ ॥ . . . . .