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आयुर्वेद उत्पन्न हुआ है ऐसा भी नहीं कहसकते क्योंकि ब्रह्माको आयुर्वेदक ज्ञान हुआ और इन्द्रने आयुर्वेदका उपदेश किया यह दो प्रकारसे आयुर्वेद उत्पन्न हुआ इस कथन से भी आयुर्वेद अनित्य नहीं होसकता क्योंकि ब्रह्माको ज्ञान होनसे प्रथम भी आयुर्वेद था यह स्पष्ट प्रतीत होता है । कोई कहते हैं कि आयुर्वेदका नित्य होना स्वभाव से ही सिद्ध है । जैसे प्रथामा ध्यायमें कहआयेहैं कि अग्निमें उष्णता और जलमें द्रवता उनका स्वाभाविक और नित्यधर्म है उसी प्रकार गुरु द्रव्योंके सेवन से गुरुताका उपचय होना और लघुताका अपचय होना आदि भी स्वभावसिद्ध हैं । सो इन सब प्रमाणोंसे आयुर्वेद स्वभावसिद्ध और नित्य सिद्ध हो चुका ॥ २१ ॥
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- सूत्रस्थान - अ० ३०,
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आयुर्वेदके आठ अङ्ग तथा उनसे धर्मप्राप्ति । तस्यायुर्वेदस्य अङ्गानि अष्टौ । तद्यथा । कायचिकित्साशालाक्यं - 'शल्या पहर्तृकंविषगरवशोधक प्रशमनं भूतविद्या कौमारभृत्य करसायनानिवाजीकरणमिति । सचाध्येतव्यो ब्राह्मणराजन्यवैश्यैः । तत्रानुग्रहार्थप्राणिनां ब्राह्मणैरात्मरक्षार्थ राजन्यैर्वृत्त्यर्थं वैश्यैः सामान्यतोवाधर्मार्थकामप्रतिग्रहार्थं सर्वैः । तंत्रचयदध्यात्मविदां धर्मपथस्थानां धर्मप्रकाशानांबामातृपितृभ्रातृबन्धुगुरुजनस्यवात्रिकार प्रशमनेप्रयत्नवान्भवति । यश्चायुर्वेदोक्तमघ्या - त्ममनुध्यायति वेदयत्यनुविधीयते वासोऽप्यस्यपरोधर्मः ॥ २२ ॥ उस आयुर्वेद के आठ अंग हैं जैसे कायचिकित्सा, शालाक्यतन्त्र, शल्यापहर्तृ'कतन्त्र, विषगखैरोधिकतन्त्र, भूतविद्या, कौमारभृत्यक, रसायनतन्त्र और वाजीकरण तन्त्र इन आठ तन्त्रों से युक्त आयुर्वेद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंको पढना चाहिये । सामान्यता से उनमें ब्राह्मणको सम्पूर्ण जीवोंपर दया करनेके लिये, क्षत्रियोंको अपनी 'आत्मरक्षा के लिये और वैश्योंको अपनी वृत्तिके लिये अध्ययन करना चाहिये । अथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबको इनके साधन के लिये आयुर्वेदका अध्य'यन करना चाहिये। उन आत्मज्ञांनी, धर्मपरायण, धर्म के प्रकाश करनेवालोंको माता, पिता, भाई, बन्धु और गुरुजनोंके विकार शान्तिके लिये यत्नवान् रहना चाहिये। जो मनुष्य आयुर्वेदोक्त अध्यात्म विषयोंको अनुध्यायन करते हैं अर्थात् जानते हैं अथवा आयुर्वेदीय विषयोंको जानना, मनन करना और संपूर्ण आयुर्वेद के जानने में यत्नवान् रहना यह इसका परमधर्म है ॥ २२ ॥