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चरकसंहिता-भा० टी०॥
। आयुर्वेदसे धर्मादिप्राप्ति । यापुनरीश्वराणांवसुमतांवासकाशात्सुखोपहारनिमित्ताभवत्यथलवावातिरवेक्षणञ्चयाचस्वपरिगृहीतानांप्राणिनामातुर्य्याद्रक्षाक्षमत्वञ्चास्यार्थः। यत्पुनरस्यविद्वग्रहणंयशःशरण्यत्वंयाचसमानशुश्रूषायचेष्टानांजनानामारोग्यमाधत्तसोऽस्यकामइति ॥ २३॥
आयुर्वेद पढनेसे धनिक पुरुषोंसे अथवा राजाओंसे सुखपूर्वक आहार आदिके लिये द्रव्यकी प्राप्ति होना और अपने परिवारकी रोगसे रक्षा करना तथा जो मनुष्य इसके आश्रयाभूत हों उनको रोगसे बचाना यह उसका परमअर्थलाभ है। जो आयुर्वेदीय चिकित्साद्वारा विद्वानों में यशका फैलना तथा वडे २ योग्य पुरुषोंको अपने वशीभूत करलेना, अपने समान मनुष्योंमें बडाईका पाना एवम् अपने प्रियपात्रोंको आरोग्यकर चित्तमें आनन्दलाभ करना यह परम कामनाकी प्राप्ति है। इस प्रकार आयुर्वेदके अध्ययनसे धर्म, अर्थ, और काम इन सबकी सिद्धि होती है ॥ २३ ॥
शास्त्रविषयक आठ प्रश्न। यथाप्रश्नमुक्तमशेषेण । अथभिषगादितएवभिषजाप्रष्टव्यइति अष्टविधम् । तद्यथा-तन्त्रंतन्त्रार्थस्थानानिस्थानार्थानध्याथानध्यायार्थान्प्रश्नान्प्रश्नार्थाश्चेति ॥२४॥ पृष्टेचैतद्वक्तव्यमशेषेणवाक्यशोवाक्यार्थशोऽर्थावयवशश्चति ॥ २५॥ इस प्रकार अशेषरूपसे संपूर्ण प्रश्नोंका उत्तर कहा गया । अव कहतेहैं कि वैद्यको वैद्यके ऊपर प्रथम ही यह आठप्रकारके प्रश्न करना चाहिये। जैसे तंत्र क्या है, तंत्रार्थ किसे कहतेहैं, स्थान क्या है, स्थानार्थ किसको कहतेहैं एवम् अध्याय: अध्यायार्थ प्रश्न, और प्रश्नार्थ किसको कहतेहैं इन आठ प्रकारके प्रश्नोंको करना चाहिये ॥ २४ ॥ यदि कोई अपने ऊपर इन आठ प्रश्नोंको करे तो वाक्यसे, वाक्यार्थसे एवम् अर्थावयवसे भलेप्रकार वर्णन करदेना चाहिये जैसे इसी अध्यायः के पन्द्रहवें सूत्र में कहआये हैं ॥ २५ ॥
क्रमानुसार प्रश्नाष्टकका उत्तर । तत्रायुर्वेदःशाखाविद्यासूत्रज्ञानशास्त्रलक्षणतन्त्रमित्यनान्त- , रम् । तन्त्रार्थःपुनःस्वलक्षणेनोपदिष्टःसचार्थःप्रकरणैर्विमा