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: सूत्रस्थान - अ० ३०.
(३९७ ) अध्याय की पूर्ति में यह एक श्लोक है - इस दश प्राणायतनीयनामक अध्यायमें संपूर्ण सूत्रस्थान के विषयोंका संग्रह, दो प्रकारके वैद्य और प्राणोंके दश स्थान वर्णन किये गये हैं ॥ १४ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसाद वैद्य० भाषाटकियां दशप्राणायतनीयो नामैकोन त्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
त्रिंशत्तमोऽध्यायः ।
अथातोऽर्थे दशमूलीयमध्यायं व्याख्यास्याम इति हस्माह
भगवानात्रेयः ।
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अब हम अर्थदशमूलीय नामक अध्यायका वर्णन करते हैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
अर्थेदशमहामूलाःसमासक्तामहाफलाः । महच्चार्थश्च हृदयं पर्य्यायैरुच्यते बुधैः ॥ १ ॥
महत्, हृदय और अर्थ यह तीनों शब्द हृदयके वाचक हैं | हृदयसे दश घमनी संज्ञक नाडी लगी हुई हैं यह नाडियां महामूला और महाफला कही जाती हैं ॥१॥ हृदयाधीन अङ्गावयव ।
षडङ्गमङ्गविज्ञानमिन्द्रियाण्यर्थपञ्चकम् । आत्माचसगुणश्वेतःचिन्त्यञ्चत्वादिसंश्रितम् ॥ २ ॥ प्रतिष्ठार्थं हि भावानामेषां हृदयमिष्यते । गोपान सीनामागारकर्णिकेवार्थचिन्तकैः॥३॥
दो हाथ, दो पांव, मस्तक और देहका मध्यभाग यह शरीरके ६ अंग कहेजा - तेहैं | कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका यह ९ इन्द्रियें कही जाती हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध यह ५ इन्द्रियोंके विषय होते हैं । सगुण आत्मा और चेतना शक्ति यह चिन्तनके योग्य हृदयके आश्रित हैं। संपूर्ण शारीरिक भावोंके आश्रयके लिये शरीरमें हृदयरूप खंभा है जैसे-घासके छप्पर के नीचे सम्पूर्ण छप्परके अवयवोंको टिकानेके लिये एक स्तम्भ रहता है उसी प्रकार शरीर के संपूर्ण भावोंको टिकानेके लिये हृदयके जाननेवालोंने हृदय कहा है ॥ २ ॥ ३ ॥