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चरकसंहिता-भा० टी०॥
दोषोंकी वृद्धिसे २५ भेद । संसर्गेणचषट्तेभ्यएकवृद्ध्यासमेस्त्रयः ।
पृथक्त्रयश्चतैवृद्धाधयःपञ्चविंशतिः ॥ ३९ ॥ एक दोषको वृद्धिसे छः भेद और दोनोंकी समतासे तीन भेद इस प्रकार दिदोपज व्याधि ९ प्रकारकी होती है । और अलग २ एक रदोषके बढनेसे एकदोपज रोग तीन प्रकारके हैं । इस प्रकार दोषोंकी वृद्धि आदिके भेदसे २५ प्रकारको व्याधियां होतीहैं ॥ ३९ ॥
दोषोंकी क्षीणतासे २५ भेद। यथावृद्धस्तथाक्षीणैर्दोषैःस्युःपञ्चविंशतिः ।
वृद्धिक्षयकृतश्चान्योविकल्पउपदेक्ष्यते ॥ ४०॥ . दोषोंकी वृद्धिके अनुसार दोषोंकी क्षीणतासे भी २५ प्रकारकी व्याधियां होती है। ऐसे ही दोषोंकी वृद्धि और क्षीणताके विकल्पसे व्याधियें होती हैं ॥ ४० ॥
वृद्धिरेंकस्यसमताचैकैकस्यचसंक्षयः ।
द्वन्द्ववृत्तिःक्षयश्चैकस्यैकावृद्धिईयोःक्षयः ॥४१॥ एक दोपकी वृद्धि, दूसरेकी समता तीसरेका क्षय इस प्रकार ६ भेद हुए। दोनोंकी वृद्धि एकका क्षय और एककी वृद्धि दोनोंका क्षय इस प्रकारसे छः भेद होसकते हैं उनको ही आगे कहते हैं ॥ ४१ ॥
दोषोंकी क्षय वृद्धिका क्रम व लक्षण । प्रकृतिस्थ्यदापितमारुतःश्लेष्मणःक्षये । स्थानादादायगात्रे. पुतत्रतत्रविसर्पति॥ ४२ ॥ तदाभेदश्चदाहश्चतत्रतत्रानवस्थि
ताः। गात्रदेशेभवेत्तस्यश्रमोदविल्यमेवच ॥४३॥ जब कफक्षय होजाताहै तो प्रकृतिस्थ पित्तको उसके स्थानसे लेकर वायु इयर उधर शरीरके अंगाम भ्रमण करताहै । वह वायु इधर उधर फिरताहुआ जिस २ अंगमें वृमताह उसी २ स्थानमं भेदनकी सी पीडा, दाह, भ्रम और दुर्वलताको करताह ॥ ४२ ॥ १३ ॥
साम्येस्थितंकफंवायुःक्षीणेपित्तेयदावली।
कत्कुर्यातदाशलंसशैत्यस्तम्भगौरवम् ॥ ४ ॥ जब पित्त क्षीण होजाताहै तो प्रकृतिस्य कफको बलवान् वायु जिस २ स्थानम लेजाताई उस २ अनमंशल, शीतता, स्तंभ, और भारीपनको करताहै ॥ ४४ ॥