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चरकसंहिता-भा० टी०॥ . समुद्रादिलवणके गुण । सामुद्रकंसमधुरंसतिक्तंकटुपांशुजम् ।
रोचनंलवणंसर्वपाकिस्रस्यनिलापहम् ॥२९६ ॥ सामुद्रनमक किञ्चित् मधुर होता है। पांशुलवण किंचित् तिक्त और कटु होता है । प्रायः सब प्रकारके लवण रुचिकारक, पाचन, दस्तावर, एवम् वातनाशक होते हैं । २९६ ॥
__जवाखारके गुण। हृत्पाण्डुग्रहणीदाषप्लीहानाहगलग्रहान् ।
कासंकफजमशेसियावशकोव्यपोहति ॥ २९७ ॥ जवाखार हृद्रोग, पांडुरोग, ग्रहणी, प्लीहा, अफरा, गलग्रह, कफकी खांसी और बवासीरको नष्ट करता है ॥ २९७ ॥
क्षारोंके गुण । । तीक्ष्णोष्णोलघुरूक्षश्चक्लदीपाकीविदारणः ।
दहनोदीपनश्छेत्तासर्वःक्षारोऽसिसन्निभः ॥२९८ ॥ प्रायः सब प्रकारके क्षार-तीक्ष्ण, गर्म,लघु, रूस, क्लेदी, पाचनकर्ता, विदा रण, दाहन, दीपन, छेदन और अग्निके समान होते हैं । २९८ ॥
जीरा और धनियाका:गुण । कारव्यःकुञ्जिकाजाजीकवरीधान्यतुम्बुरुः ।
रोचनंदीपनंवातकफदोर्गन्ध्यनाशनम् ॥ २९९ ॥ ५ कलौंजी, कालानीरा, अजायन, सफेदजीरा, मेथी नैपाली धनिया, तुंवरु, ये सब रुचिकारक, दीपन, वातकफनाशक एवम् दुर्गन्धनाशक होते हैं ॥ २९९ ॥
आहारयोगिनांभक्तिनिश्चयोनतुविद्यते । समातोद्वादशश्चायंवर्गआहारयोगिनाम् ॥ ३०० ॥
- इत्याहारयोगवर्गः। : आहारके उपयोगी पदार्थों में कहांपर कौन वस्तुएं कितनी डालिनी चाहिये इसका कोई यथार्थ नियम नहीं है । इस प्रकार आहारोपयोगी नामक द्वादशवर्ग -समाम हुआ ॥ ३०॥