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सूत्रस्थान-अ० २८,
(३७९) अष्टाविंशोऽध्यायः । अथातोविविधाशितपीतीयमध्यायंव्याख्यास्यामइति हस्माहभगवानात्रेयः।
अव हम विविध अशितपतिय नामक अध्यायकी व्याख्या करते हैं । ऐसा भगबान् आत्रयजी कथन करनेलगे।
हितकर आहारसे रस रक्तादिकी उत्पत्तिक्रम । विविधमशितपीतलीढखादितजन्तोर्हितमन्नमग्निसन्धुक्षितवलेनयथास्वेनोष्मणासम्यग्विपच्यमानंकालवदनवास्थितसर्वधातुपाकमनुपहतसर्वधातूष्ममारुतस्त्रोतःकेवलंशरीरमुपचयवलवर्णसुखायुषायोजयतीतिशरीरधातूनुर्जयन्धातवोहिधात्वाहारा प्रकृतिमनुवर्तन्ते ॥१॥
अनेक प्रकारके हितकारक भाजन करनेके पदार्थ, पीनेके पदार्थ, गटनेके. पदार्थ, खानेक पदार्थ अन्तराग्निकी गर्मी से यथोचित रीतिपर परिपाक होकर यथा समय रस,रक्त,मांसादि वनकर संपूर्ण धातुओंमें माप्त होजात है।इसी लिये शरीरके. संपूर्ण धातु वायुके निकलनेवाले छिद्रोंमें व्याघात करत न हु“ शररिके बल, वर्ण, सुख,पुष्टता तथा आयुकी वृद्धि करते हैं । आहारसे बल प्राप्तहुए धातु धातुरूप होते. अपनी २ प्रकृतिमें आहारको प्राप्त कर स्वभावानुकूल रहतेहैं ॥ १॥ -
आहारद्वारा शरीरोपचयक्रम । तत्राहारप्रसादाख्योरसःकिश्चमलायमभिनिवर्त्ततकिटातमू
स्वेदपुरीषवातपित्तश्लेष्माणःकर्णाक्षिनासिकास्यलोमकूपप्र. जननमलकेशश्मश्रुलोमनखादयश्चावयवाः॥२॥
किये हुए आहारका परिपाक होने पर उसके दो विभाग होजाते हैं। उनमें जो उत्तम सार होताहै-उसको रस कहतेहैं और जो फोकट बचता है उसको किट्ट अथवा मल कहते हैं उस किसे मूत्र, स्वेद, विष्ठा, वायु, पित्त तथा कफ ये उत्पन्न होतेहैं एवम् कान, नेत्र, नाक, मुख, रोमकूप इन सबका मल तथा बाल, श्मश्रु. रोम और नख यह संपूर्ण उस किटके अंशोंसे बनतेहैं ॥२॥ पुष्यन्तित्वाहाररसात्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रौजांसि