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सूत्रस्थान- अ० २८.
(३८७)
वेगान् धारणीयाध्यायमें कथन कर चुकेहैं तथा अन्य २ स्थानों में भी कहीं कहीं - कथन कियाजायगा ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
व्यायामादुष्मणस्तैक्ष्ण्याद्धितस्यानवधारणात् । कोष्ठाच्छाखामलायान्तिद्रुतत्वान्मारुतस्यच ॥३५॥ तंत्रस्थाश्चविलम्बन्ते कदाचिन्नासमीरिताः । नादेशकाले कुप्यन्ति भूयोहेतुप्रतीक्षिणः ॥ ३६ ॥
'हितकारक आचरण न करनेसें, व्यायाम न करनेसे अथवा अहित व्यायाम 'करनेसे गर्मी की तीक्ष्णतासे, वायुकी द्रुतगति होनेसे दोष कोष्ठसे शाखा और मर्म - स्थानमें गमन करते हैं फिर उन स्थानों में पहुंचकर प्रबलता पाने पर्यन्त विलम्बित रहते हैं फिर विना समय तथा विना देश इनमें अपने हेतुकी परीक्षा करते हुए कुपित नहीं होते और कारण जनित सहायता प्राप्त कर कुपित हो अनेक प्रकारके - रोग उत्पन्न करते हैं ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
वृद्धयाभिष्यन्दनात्पाकात्स्रोतोमुखविशोधनात्
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शाखामुक्त्वामलाः कोष्ठयान्तिवायोश्चनिग्रहांत् ॥ ३७ ॥
वृद्धिको प्राप्त हुए वह दोष-अभिष्यंदी होजानेसे, अथवा स्रोतोंका मुख शुद्ध होनेसे या पाचन औषधियों द्वारा दोषोंके परिपाक होनेसे दोष वायुके निग्रह डोनेसे शाखाओं को छोडकर कोष्ठमें आकर प्राप्त होजाते हैं ॥ ३७ ॥ अजातानामनुत्पत्तौजातानांविनिवृत्तये ।
रोगाणां योविधिर्दृष्टः सुखार्थीतसमाचरेत् ॥ ३८ ॥
जो रोग उत्पन्न नहीं हुएहैं उनको उत्पन्न न होने देना और उत्पन्न हुए दोषको - नष्ट करदेना. इन दोनोंके लिये शास्त्रमें जो प्रकार लिखाहै उसका सेवन करना -सुखकी इच्छा वाले मनुष्यको अत्यावश्यक है ॥ ३८ ॥
हितकारी उपदेश | सुखार्थाः सर्वभूतानांमताः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥ ज्ञानाज्ञानविशेषात् मार्गामार्गप्रवृत्तयः ॥ ३९ ॥
संपूर्ण प्राणीमात्र अपने सुखकी इच्छा करते हुए हीं सब कार्यों में प्रवृत्त होने हैं परन्तु वह प्रवृत्ति सुमार्ग और कुमार्गके भेदसे दो प्रकारकी हो जाती है। इस द्विविध प्रवृत्तिका कारण ज्ञान और अज्ञान ही है क्योंकि अज्ञानवश मनुष्य अपने सुखकों इच्छा करता हुआ कुमार्ग में प्रवृत्त होजाताहै और ज्ञानवश सुमार्ग में प्रवृत्त होताहै ॥ ३९ ॥