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चरकसंहिता - भा० टी० ।
हितमेवानुरुध्यन्ते प्रसमीक्ष्यपरीक्षकाः । रजोमोहावृतात्मानः प्रियमेव लौकिकाः ॥ ४० ॥
बुद्धिमान मनुष्य विचारपूर्वक हितकारी वस्तुओं काही अवलम्वन करता है एवम् रज और मोहसे ढकी हुई आत्मावाले प्यारी वस्तुओं का अवलम्बन करते हैं । प्रायः संसारमें हित और प्रिय भेदसे दो प्रकार के पदार्थ होतेहैं । जो पदार्थ न अच्छा लगनेपर भी हितकारी होता है उसको हित कहते हैं जैसे ज्वरमें निम्वादिचूर्ण । इसी प्रकार जो पदार्थ अहितकारी होनेपर भी प्रिय मालुम होता है उसको प्रिय कहते हैं जैसे कफ प्रधान ज्वरमें दही बडे ॥ ४० ॥
श्रुतंबुद्धिःस्मृतिर्दाढ्यं धृतिर्हितनिषेवणम् । वाकूप्रशुद्धिः शमो धैर्य्यमाश्रयन्तिपरीक्षकम् ॥ ४१ ॥ लौकिकंनाश्रयन्त्येतेगुणामोहतमाश्रितम् । तन्मूला बहुलाश्चैव रोगाः शारीरमान
साः ॥ ४२ ॥
बुद्धिमान् परीक्षक शास्त्र, बुद्धि, स्मृति, दृढता, धृति, हितसेवन, वाणीकी शुद्ध, शान्ति और धैर्य इनका आश्रय लेकर कार्यमें प्रवृत्त होता है ॥ ४१ ॥ और लौकिक मनुष्य इन गुणोंका आश्रय न लेकर मोह और तम आदिके वश हो कार्यों में प्रवृत्त होता है । सो मोह और तममूलकही संपूर्ण शारीरिक और मानसिक रोग होते हैं ॥ ४२ ॥
प्रज्ञापराधाद्धयहितानर्थान्पञ्चनिषेवते । सन्धारयतिवेगांश्च सेवतेसाहसानिच ॥ ४३ ॥ तदात्वसुखसंज्ञेषुभावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । रज्यतेनतुविज्ञाताविज्ञानेामलीकृते ॥ ४४ ॥ नरोगान्नाप्यविज्ञानादाहारमुपयोजयेत् । परीक्ष्यहितमश्नीयाद्देहोह्याहारसम्भवः ॥ ४५ ॥
मनुष्य बुद्धिके अपराधसे ही पांच प्रकारके अहित विषयोंका सेवन करता है । अज्ञानता वशही मल आदिके वेगोंको धारण करता है तथा अनुचित साहसको करता है इसी लिये वह अज्ञानी मनुष्य परिणामको न समझता हुआ असंखकारक अर्थात् दुःखदायी भावों में आसक्त होजाता है । परन्तु ज्ञानी मनुष्य निर्मल ज्ञानके प्रभावसे असुखकारी विषयों में प्रवृत्त नहीं होता और रागसे तथा अज्ञानसे अहितः आहार का सेवन नहीं करता इसलिये हित और अहितका विचार कर हित आहार-