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सूत्रस्थान अ० २८. . प्रस्रवत्यपि। शुक्रं हिदुष्टंसापत्यं सदारंवांधतेनरम् ॥२२॥ शुक (वीर्य ) दूषित होनेसे नपुंसकता, हर्षका न होना एवम् बहुत दिनतक रोगी रहनेके कारण आयुका कम होना, संतानका न होना या कुत्सित संतान होना अथवा गर्भका पतन या स्राव होजाना ऐसेरउपद्रव होतेहै । दूषित हुआ शुक्र अपने शरीरके सिवाय स्त्री और संतानको भी दुःखदायी हाताहै अर्थात् स्त्री पुत्रों सहित पुरुषको दाखित रखताहै ॥ २१ ॥ २२॥
कुपितदोषोंके कर्म । इन्द्रियाणिसमाश्रित्यप्रकुप्यन्तियदामलाः ।
उपतापोपघाताभ्यां योजयन्तीन्द्रयाणते ॥२३॥ - यदि कुपितहुए दोष इन्द्रियोंमें आश्रित होजांप तो इन्द्रियोंकाः उपताय तथा उपघात होताहै ॥ २३ ॥
स्नायौशिराकण्डरयोर्दुष्टाःक्लिश्यन्तिमानवम् ।
स्तम्भसंकोचखल्लीभिन्थिस्फुरणसुतिभिः ॥ २४ ॥ यदि वातादिदोष-स्नायु, शिरा एवम् कण्डरा आदि नाडियोंमें प्रकुपित होकर व्यापक होजाय तो मनुष्यक शरीरमें स्तम्भ, संकोच, खल्ली, गाठोंका फडकना तथा अंगोंका सोंजाना यह उपद्रव होतेहैं ॥ २४ ॥
मलानाश्रित्यकुपिताभेददोषप्रदूषणम् ।
दोषामलानांकुर्वन्तिसङ्गोत्सर्गावतीवच ॥ २५ ॥ कुपित हुए वातादि दोष मलस्थानमें व्यापक होनेसे मलोंका विलकुल रुकजाना या अत्यन्त निकलना आदि उपद्रव होते हैं ॥ २५ ॥
विविधादशितात्पीतादहिताल्लीढखादितात् ।
भवन्त्येतेमनुष्याणांविकारायउदाहृताः ॥ २६ ॥ इस प्रकार अहित,भुक्त, पीत, आलीह, चर्वित अनेक प्रकारके आहारोंके कर. ... नेसे मनुष्यों के शरीरोंमें यह विकार उत्पन्न होतेहैं ॥ २६ ॥
तेषामिच्छन्ननुत्पत्तिसेवेतमतिमान्सदा।
हितान्येवाशितादीनिनस्युस्तज्जास्तथामयाः ॥ २७॥ . जो मनुष्य अपने शरीरमें दापोंके प्रकोपको होने देना नहीं चाहते उन बुद्धि मानोंको हित आहारोंको ही सेवन करना चाहिये क्योंकि हित आहार सेवन करनेसे आहारजनित रोग उत्पन्न ही नहीं होनेपाते ॥ २७॥
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