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(३८२.) चरकसंहिता-मा० टी०।
तयोरसान्सम्यगुपयुञ्जानंपुरुषमशुभेनोपपादयन्तिातस्माद्धिताहारोपयोगिनोऽपिदृश्यन्तेव्याधिमन्तः। आहिताहारोपयोगिनांपुनःकरणतोनसयोदोषवान्भवत्यपचारोनहिसवाण्यपथ्यानितुल्यदोषकराणि । नचसर्वेदोषास्तुल्यबलाः । नच . सर्वाणिशरीराणिव्याधिक्षमत्वेसमानितदेवापथ्यंदेशका-.. लसंयोगवीर्यप्रमाणातियोगाद्भूयस्तरमपथ्यसम्पद्यते। सएवदोषःसंसृष्टयं निविरुद्धोपक्रमोगम्भीरानुगतःप्राणायतनसमु- . त्थोमोपघातीवाभूयान्कष्टतमःशिप्रकारितमश्चलस्पद्यते ॥९॥ यह सुनकर आत्रेय भगवान् कहनेलगे कि हे आनिवेश ! आहारसे उत्पन्न होने. बालेजो रोग हैं,हित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्यके शरीरमें कभी उत्पन्न नहीं होते परन्तु संपूर्ण व्याधियां हित आहार करनेसेही नहीं होती यह बात नहीं है। क्योंकि हित आहारकी उपयोगी आरोग्यताके सिवाय और भी ऐसे कारण हैं जो रोगोंको उत्पन्न करते हैं । जैसे- कालविपर्यय ( कालकी विपरीतता) और प्रज्ञापराध और परिणाम एवम् असात्म्य-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, ये सब हित आहार सेवन करनेराले मनुष्यों को भी अशुभके करनेवाले होते हैं अर्थात रोग उत्पन्न करनेके हेतु होतहैं ।इसलिये ही हित और पथ्य भोजन करनेवाले मनुष्यभी व्याधियुक्त दिखाई देतेहैं । और अहित आहारके सेवन करनेवाले मनुष्योंको भी तत्काल रोग ग्रसित नहीं देखा जाता क्योंकि संपूर्ण कुपथ्यही सब दोषोंके तुल्य नहीं होते एवम् सच दोष भी समान वलवाले नहीं होते और व्याधि सहन शक्तिके स्वभावसे सब शरीर भी एकसे नहीं होते । इस प्रकार अपथ्य भोजन-देश, काल, संयोग, वीर्य, प्रमाण इनके अतियोगसे और भी अधिक कुपथ्य होजाताहै और दोषोंको कुपित करदेता है । एक दोष भी अनेक रोगोंको उत्पन्न करनेवाला चिकित्सा विरोधी, गंभीरानुगत, प्राणस्थान तथा मर्मस्थानका उपघाती होता. दुधा अत्यंत कष्टको उत्पन्न करनेवाला और शीघ्रकारी होजाताहै ॥९॥
" असहन शक्तिवाले शरीरोंका वर्णन । शरीराणिचातिस्थूलानिअतिकशानिअनिविष्टमांसशोणतास्थीनिदुर्बलानिअसात्म्याहारोपचितान्यल्पाहाराणिअल्पसत्वानिवाभवन्तिअव्याधिसहानि॥१०॥विपरीतानिपुनर्व्याधि