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सूत्रस्थान-अ० २७. जो पदार्थ भारी हैं उनको थोडा खाना चाहिये और हलके पदार्थोंको पेटभरकर खालेना चाहिये । आहारकी लघुता और गुरुता मात्राके अधीन है और मात्रा जठरानिके बलायलपर निर्भर है ॥ ३३६ ॥
बलमारोग्यमायुश्चप्राणाश्चानौप्रतिष्ठिताः।
अनुपानेन्धनैश्चाग्निर्दीप्यतेशाम्यतेऽन्यथा ॥ ३३७॥ वल, आरोग्यता, आयुकी स्थिरता, प्राण ये सब जठराग्निक ही आश्रयभूत हैं सो वह जठराग्नि अनुशनरूपी इंधनसे चैतन्य रहती है।यदि वह अनुपान अनुचितरीतिपर सेवन कियाजाय तो वहीं उस आग्नेको नष्ट करनेवाला होताहै ॥ ३३७ ॥
गुरुलाघवचिन्तयंप्रायेणाल्पबलान्प्रति। .. मन्दकर्माननारोग्यान्सुकुमारान्सुखोचितान् ॥ ३३८॥
यह गुरु लाधवका विचार प्रायः अल्पवलवालोंको, आलसीपुरुषोंको, रोगियोंको, सुकुमारोंको, सुखपूर्वक रहनेवालों को विशेषतासे रखना चाहिये ॥ ३३८॥
दीसाग्नयःसराहाराःकम्मनित्यामहोदराः।
येनराःप्रतितांश्चिन्त्यंनावश्यंगुरुलाघवम् ॥ ३३९ ॥ जिनकी अग्नि बहुत वलवान है जो अंटसंट, कठोर वस्तुओंके खानेके अभ्यासबाले हैं। जो दिनभर बहुत काम करनेवाले हैं तथा जो बहुत आहार करते हैं उनको गुरु, लाघवका विचार कर आहार करनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है ।।३३९॥
हित कर्म । हिताभिर्जुहुयान्नित्यमन्तराग्निसमाहितः ।
अनुपानसमिद्भिर्नामात्राकालौविचारयन् ॥ ३४०॥. संपूर्ण मनुष्यमात्रको मात्रा और काल विचारकर हितकारक आहाररूपी इंधनः द्वारा जठराग्निको चैतन्य रखना चाहिये ॥ ३४०॥
आहिताग्नेःसदापथ्यान्यन्तराग्नौजहोतियः। दिवतेदिवसेबह्मजपत्यथददातिच । नरनिःश्रेयसेयुक्तंसात्म्यशंपानभोजन। ॥ ३४१ ॥ भजन्तेनामयाकेचिद्भाविनोऽप्यन्तराते । षटान शवसहस्राणिरामीणांहितभोजनजीवत्यनातुरोजन्तुर्जितास्मासम्मतःसतामिति ॥ ३४२॥