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'(३७८) चरकसंहिता-भा० से।
जो मनुष्य सदैव अंतराानमें पथ्यरूपी आहुति देता है और नित्यप्राति भगवान्का भजन कर यथाशक्ति दानदेता है,ऐसे कल्याणमें तत्पर और सात्म्य अन्नपान करने वाले मनुष्यको अवश्यम्भावीके विना कोई रोग या दःख नहीं सताते अथवा यों कहिये कि रोगोंके कारण न होनेके सवव रोग होते ही नहीं ऐसे वह जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष रोगराहत होकर सौवर्षपर्यन्त जीवित रहताहै ॥ ३४१॥३४२॥
तत्र श्लोकाः। अनुपानगुणाःसाग्र्यावर्गाद्वादशनिश्चिताः ।
सशुणान्यन्नपानानिगुरुलाघवसंग्रहः ॥ ३४३ ॥ अनुपानविधायुक्तंतत्परीक्ष्यविशेषतः। प्राणाःप्राणभृतामन्नमनंलोकोऽभिधावति ॥ ३४४ ॥ वर्णप्रसादालोस्वयंावितप्रतिभासुखम् ॥ तुष्टिःपुष्टिबलंमेधासर्वभन्नेप्रतिष्ठितम् ॥ ३४५॥ लौकिकंकर्मयवृत्तौस्वर्गीयञ्चवैदिकम् । कर्मापवर्गेयच्चोक्तं तच्चाप्यन्नेप्रतिष्ठितम् ॥ ३४६ ॥
इत्यन्नपानचतुष्केऽन्नपानविधिरध्यायः। यहांपर अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं:-कि इस अन्नपानविधि नामके अध्यायमें अन्नपानके गुण तथा उसकी सामग्री के विषयमें बारहवर्ग, अन्नपान गुण और उनका गौरव तया लाघव अन्नपान विधि नियमकी विशेषरूपसे परीक्षा, अन्नमें प्राणियोंके प्राण और अन्नमें ही लोककी प्रतिष्ठा, वर्ण, प्रसन्नता, सुंदरता, जीवन, कांति, सुख, पुटि, तुष्टि,बल, मेधा यह सब अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं । इसमें लौकिक और पारलौकिक तथा दैवलौकिक और मोक्षसाधन यह संपूर्ण अन्नमें ही प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस अन्नपानविधि नामक अध्यायमें निरूपण किया गया है॥३४३ ॥ ३४४ ॥ ३४५ ॥ ३४६ ॥ इति श्रीमहर्पिचरक० पंरामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामन्नपानविधिर्नाम
सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७॥