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(२३६) चरकसंहिता-भा० टी०। ताः श्लेप्मविकाराःप्रशान्तिमापद्यन्ते । यथाभिन्नेकेदारसेतो शालियवपष्टिकादीन्यभिष्यन्द्यमानानि, अम्भसाप्रशोषमापद्यन्तेतद्वदिति ॥ २५॥ उस कफको कटु, तिक्त, कषाय, तीक्ष्ण और उष्ण तथा रूक्ष उपायों द्वारा जीते । एवं स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन, व्यायाम आदिक कफनाशक उपायों द्वारा मात्रा और काल विचारकर चिकित्सा करे । कफनाशक सव उपायों में वैद्यजन वमन कराना सबसे उत्तम मानतेहैं, क्योंकि वामक औषधि प्रथम ही आमाशयमें प्रवेश कर वैकारिक कफको जडसे आकर्षण करके निकालदेती है । फिर उस वैकारिक कफके जीते जानेसे शरीरान्तर्गत सव कफके विकार स्वयं शान्त होजातेहैं । जैसे पानीके भरे खेतकी डौल तोडदेनेसे खेतका सव पानी बाहर निकल जाताहै और उस खेतके अदरके सव धान सूखजातेहैं ऐसे ही कफविकार भी सब शांत होजातह ॥ २४ ॥ २५ ॥
भवान्तचात्र ।
अध्यायका उपसंहार। रोगमादोपरीक्षेतततोऽनन्तरमौषधम्।
ततःकर्मभिपक्पश्चाज्ज्ञानपूर्वसमाचरेत् ॥ २६ ॥ यहां कहा कि पहले रोगकी परीक्षा करे फिर औषधिकी परीक्षा करे, इन दानोंका ययोचित निश्चय करके फिर ज्ञानपूर्वक चिकित्साकर्मका आरंभ करे २६॥
यस्तुरोगमविज्ञायकर्माण्यारभतेभिषक् । । अप्यौपधविधानजस्तस्यसिद्धिर्यदृच्छया ॥२७॥
जो वेद्य रोगको यथोचित समझे विना ही चिकित्साका आरंभ करदेताहै वह यदि श्रीपचतानमें कुगल भी हो फिर भी उसकी सिद्धि देवाधिन है अर्थात् अन्दाज लगगया तो लगगया नहीं तो नुकसान भी होजाताहै ॥ २७ ॥
यस्तुरोगविशेषज्ञःसर्व पज्यकोविदः।
देशकालप्रमाणजस्तस्यसिद्विरसंशयम् ॥ २८ ॥ जोवर गेगको भले प्रकार समझलेताह तया सब प्रकारसे औषधक्रियाम भी गिल और देश काल विचारकर चिकित्सा करताह उसकी सिद्धि अवश्य ही होती ॥ २८॥