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चरकसंहिता-भा० टी०॥ उस मनुष्यको अतिस्थूल कहतेहैं ॥९॥ इस प्रकार मेदस्वी मनुष्यके दोष और हेतु तया रूपाका कथन किया गयाहै । अव अत्यन्त कृश शरीरंवालोंके हेतु.और. लक्षणांको कहतेहैं ॥ १०॥
अतिकृशताके कारण और लक्षण । सेवारूक्षान्नपानानांलंघनप्रमिताशनम् । क्रियातियोगःशोकचवेगनिद्राविनिग्रहः ॥ ११ ॥ रूक्षस्योद्वर्तनस्तानस्याभ्यासः प्रकृतिर्जरा । विकारानुशयःक्रोधःकुर्वन्त्यतिकशनरम् ॥१२॥ रूक्ष अन्न पानके अधिक सेवन करनेसे, लंघन करनेसे, अल्पभोजन करनेसे,अतिशोधन अथवा परिश्रम करनेसे,शोकसे, मलमूत्रादि वेगोंको रोकनेसे,रात्रि में जाग. नेसे, रुखे द्रव्योंके उद्वर्तन करनेसे, स्नानका अभ्यास न रखनसे, कृशताकारक आहार विहारके सेवनसे, एवं बुढापेसे,तथा सदैव रोगी और क्रोधी रहने से मनुष्य दुर्वल अर्थात् कृश होतेहैं ॥ ११ ॥ १२ ॥
व्यायाममतिसौहित्यक्षुत्पिपासामोषधम्। कशोनसहततद्वदतिशीतोष्णमेथुनम् ॥ १३॥ प्लीहाकासःक्षयःश्वासोगुल्माशास्युदराणिच । कशंप्रायोऽभिधावन्तिरोगाश्चग्रहणीगताः ॥ १४ ॥ कृशशरीरवाला मनुष्य परिश्रम नहीं कर सकता, एवं पेट भरकर भोजन भूख, प्यास, अधिक औषधि सेवन, बहुत सर्दी, बहुत गर्मी अधिक मैथुन इन सबको सम्हार नहीं सकता। एवं इस दुर्वल शरीरवाले मनुष्यको-तिल्ली,खांसी,क्षय,श्वास, गोला, अर्श और उदररोग आकर घेर लेते हैं तथा कृश मनुष्यको ग्रहणी रोग भी होजाताहे ॥ १३ ॥ १४ ॥
शुप्कस्फिगुदरग्रीवोधमनीजालसन्ततः। स्वगास्थिशोपोऽतिकृशःस्थलपर्वानरोमतः ॥१५॥ सततव्यापितावेतावतिस्थूलरुशानरों । सततंचोपचोहिकर्पगैहणैरपि ॥ १६ ॥ काम मनुष्पक-नितंब, उदर,और ग्रीवा सूखजाती हैं तथा शरीर नसोंके जालसे व्यानया दिखाई देने लगताह त्वचा और हडिएं सखजाती हैं और गांठाके स्थान मोटे मोटे दिखाई देने लगतः ॥ १५ ॥ क्योंकि स्थूल और कृश यह दोनों ही सर्पदा भेगमस्त होते हैं इसलिये इनको ययाक्रम लंघन और बृहणसे सदेव उपचार पाना योग्य ॥ १६ ॥