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चरकसंहिता - भा०टी० ।
दोतह इसलिये पुरुषको उत्पत्तिमें और रोगकी उत्पत्ति में भी माता पिताही कों कारण मानना चाहिये ॥ १४ ॥ १५ ॥
भद्रकाप्यका मत ।
भद्रकाप्यस्तुनेत्याहन ह्यन्धोऽन्धात्प्रजायते । मातापित्रोश्चतेपूर्वमुत्पत्तिनोपपद्यते ॥ १६ ॥ कर्म्मजस्तुम तो जन्तुः कर्म जास्तस्यचामयाः । नचृतेकर्मणोजन्मरोगाणां पुरुषस्यच ॥ १७ ॥ यह सुनकर भद्रकाप्य कहने लगे कि ऐसा नहीं होता । हम देखते हैं के अंधेकों सन्तान कभी अंधी नहीं होती इसलिये माता पिता पुरुष और रोगकी उत्पत्तिकें कारण हैं यह नहीं हो सकता । सो हमारे मतमें तो पुरुष और व्याधियां कर्मसें उत्पन्न होती हैं । कर्मके विना पुरुषका जन्म एवम् रोगोंकी उत्पत्ति होही नहीं सकती ॥ १६ ॥ १७ ॥
भरद्वाजका मत ।
भरद्वाजस्तुनेत्याहकर्ता पूर्वहिकर्मणः । दृष्टंनचाकृतं कर्मयस्य स्यात्पुरुषःफलम् ॥ १८॥ भावेहेतुः स्वभावस्तुव्याधीनां पुरु स्यच । खरद्रवचलोष्णत्वं तेजोऽन्तानां यथैवहि ॥ १९ ॥
इसके उपरान्त भरद्वाज कहने लगे इस तरह नहीं होता क्योंकि कर्म विचारा स्वयम् उत्पन्न होनेकी ताकत ही नहीं रखता, वह कर्त्ता के अधीन है | जब कर्म किया ही नहीं गया तो वह पुरुषकी उत्पत्ति और रोगका उत्पत्तिरूपी फल कैसे दे सकता है इसलिये कर्म पुरुष और रोगोंका कारण कभी नहीं होसकता । पुरुष और रोगों की उत्पत्तिका कारण तो स्वभावको ही मानना चाहिये। जैसे- पंच महाभूतांका खरत्व, द्रवत्व, चरत्व, उष्णव, प्रकाशत्व, यह धर्म स्वभावसे हीं उत्पन्न होताहै इसी प्रकार पुरुषका जन्म और रोगकी उत्पत्ति भी स्वाभाविक धर्म है ॥ १८ ॥ १९ ॥
कांकायनका मत ।
काङ्कायनस्तुनेत्याहनह्यारम्भेफलं भवेत् । भवेत्स्वभावाद्भावानामसिद्धिःसिद्धिरेवत्रा ॥ २० ॥ स्रष्टात्वमतिसंकल्पोब्रह्मापत्यं प्रजापतिः । चेतनाचेतनास्यास्यजगतः सुखदुःखयोः ॥ २१ ॥ यह सुनकर कांकायन ऋषि कहने लगे यह भी नहीं होसकता क्योंकि फल आरं भके बिना नहीं हो सकता। हम देखते कर्मका फल कर्म नहीं होता । यदि आप.