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चरकसंहिता-भा० टी०।
भवन्तिचात्र । अग्र्याणांशतमुद्दिष्टंयहिपञ्चाशदुत्तरम् । अलमेतद्विकाराणां विघातायोपदिश्यते ॥ ४२ ॥ समानकारणायेऽर्थास्तेषांश्रेष्ठस्यलक्षणम्ाज्यायस्त्वंकार्यकारित्वेऽवरत्वंचाप्युदाहृतम् ॥४३॥ इस प्रकार १५२ प्रधान २ वार्ताओंका कथन किया गया है सो रोगशान्तिके लिये इन एकसौ बावन प्रधान वातोंका जानना ही बहुत है । इनमें समान कार्यकर्ता द्रव्याम श्रेष्ठके लक्षण और प्रधानता तथा कार्यकारिता और निकृष्टता कथन कर दीगई है ॥ ४२ ॥४३ ॥
उपरोक्त उपदेशोंका तत्व । वातपित्तकफेभ्यश्चयद्यत्प्रशमनेहितमा प्राधान्यतश्चनिर्दिष्टय.
याधिहरमुत्तमम् ॥४४॥ एतन्निशम्यनिपुणंचिकित्सांसम्प्रयोजयेत् । एवंकुर्वन्सदावैद्योधर्मकामौसमश्नुते ॥४५॥ पथ्यंयथानपेतंयद्यच्चोक्तमनसःप्रियम् । यच्चाप्रियमपश्यञ्चनियतंतत्रलक्षयेत् ॥४६॥ वात, पित्त, कफर्की शान्ति करनेवालोंमे हितकारी और प्रधान तथा रोगानवारक द्रव्यांका वर्णन किया गया है बुद्धिमान् वैद्यको यह सव विषय स्मरण रखकर चिकित्सा करना चाहिये । इस प्रकार करनेसे वैद्य धर्म, अर्थ और कामको भली प्रकार प्राप्त होता है। जो पदार्थ पुरुषके लिये सात्म्य ( उपयोगी ) और मनको हितभरी कहे गये हैं। उनको पथ्य समझना चाहिये । जो असात्म्य और कुपथ्य हैं उनकी ओर ध्यान भी देना नहीं चाहिये ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ।।
मात्राकालक्रियासमिदेहदोपगुणान्तरम् । प्राप्यतत्ताद्धदृश्यन्तततोभावास्तथातथा ॥ १७॥ तस्मात्स्वभावोनिर्दिष्टस्तयामानादिराश्रयः तदपेक्ष्योभयंकर्मप्रयोज्यंसिद्धिमिच्छता ॥४८॥ मात्रा, काल, क्रिया, देश, देह, दोप और गुण यादिकोंके अन्तर होनेसे महिनार पथ्य पार हितकर कुपथ्य होजातेह । इस लिये सब द्रव्यांका स्वभाव माना आदि विधाका उपयोग करना चाहिये । सिद्धिलाम करनेवाले वैद्याको नगर याताको विचारका ही चिकित्सा करनी चाहिये ।। ४७ ॥ ४८ ॥