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सूत्रस्थान - अ० २६.
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जो रस जीभ पर गिरते ही जीभको बिगाडे और स्वाद बुरा प्रतीत हो और जीभको तथा मुखको विषद और शोषण करे एवम् मुखको कडुआ बनादे उसको तिक्तरस कहते हैं ॥ १०३ ॥
: वैषद्यस्तम्भजाड्यैर्योरसनंयोजयेद्रसः । बन्नातीवचयः कंठकः षायः सविकास्यति ॥ १०४ ॥
जो रस जीभको विषद, स्तम्भ, जडतायुक्त करे वाणी और कण्ठको जकडसा देवे एवम् विकाशी हो उसको कषाय ( कसैला ) रस कहते हैं ॥ १०४ ॥ विरुद्धाहारविषयक अग्निवेशका प्रश्न |
एवंवादिनंभगवन्तमात्रेयमग्निवेश उवाच । भगवन् श्रुतमेतदवितथमर्थसम्पद्युक्तं भगवतोयथावद्द्रव्यकर्माधिकारेवचः : परन्त्वाहारविकाराणां वैरोधिकानांलक्षणमनतिसंक्षेपेणोपदिश्यमानंशुश्रूषामहेति ॥ १०५ ॥
इस प्रकार कहते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन्! द्रव्यकर्माधिकारमें आपने जो कुछ उपदेश किया है यह यथार्थ और श्रेष्ठ एवम् सर्वगुणसम्पन्न उपदेश श्रवण कलिया है । अब कृपा कर आहारके विषयमें विकार - कारक तथा विरुद्ध रसोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । इस विषय में आपके उपदेश किये लक्षण श्रवण करने की इच्छा है ॥ १०५ ॥
आत्रेयका उत्तर ।
तमुवाच भगवानात्रेयः । देहधातुप्रत्यनीकभूतानिद्रव्याणिदेहधातुविरोधमापाद्यन्ते परस्परविरुद्धानिकानिचित्संयोगात्सं
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स्कारादपराणिदेशकालमात्रादिभिश्चापराणितथास्वभावाद
पराणि ॥ १०६ ॥
यह सुनकर आत्रेय भगवान् अग्निवेशसे कहने लगे कि देह और धातुओंसे प्रति• कूल जितने ही द्रव्य हैं वह सब देह और धातुओंसे विरोधको उत्पन्न करते हैं । बहुतसे द्रव्य ऐसे भी हैं जो आपस में संयोग विरोधी होनेसे देहधातुओं में विकारको उत्पन्न करते हैं एवम् कोई गुणविरुद्ध होनेसे, कोई संयोगविरुद्ध होनेसे, कोई संस्का रविरुद्ध होनेसे रोगोत्पादक होते हैं, तथा देश, काल, मात्रा आदिके विरुद्ध होनेसे भी द्रव्य शरीर और धातुओंसे विरोधी होता है । कोई ऐसे द्रव्य भी हैं जो स्वभावसे ही विरुद्ध होतेहैं ॥ १०६ ॥