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चरकसंहिता-भा० टी०। संयोगतोविरुद्धंतद्यथाम्लंपयसासह
अमनोरुचितंयच्चहृद्विरुदंतदुच्यते ॥ १४१॥ . ___ खट्टे पदार्थोंको दूधमें मिलाकर खाना संयोगविरुद होताहै । मनको बुरा लगनेबाला पदार्थ हृदयसे विरुद्ध कहा जाताहै ॥ १४१॥
सम्पद्विरुद्धंतद्विद्यादसञ्जातरसन्तुतत् । . अतिक्रान्तरसंवापिविपन्नरसमेववा॥ १४२॥ जिस पदार्थ में यथोचित परिपक्व होकर उचित रस न उत्पन्न हुआ हो उसको सम्पदविरुद्ध कहतेहैं । एवम् जिसका रस खराव होगयाहो अथवा नष्ट होगयाहो उसको भी सम्पद विरुद्ध कहते ॥ १४२॥
ज्ञेयंविधिविरुद्धन्तुभुज्यतेनिभृतेनयत् । .
तदेवंविधमन्नस्याविरुद्धमुपयोजितम् ॥ १४३ ॥ जो मनुष्य भोजन कियाहुआ होने पर फिर भोजन करे अथवा कच्चा भोजन करे था स्वेदन आदिसे नम्र होनेपर एकदम अंटसंट भोजन करजाय उसको विधिविरुद्ध कहतेहैं । इस प्रकार भोजनकी विरुद्धताका वर्णन कियागयाहै ॥ १४३ ॥ . .
सात्म्यतोऽल्पतयावापिदीताग्नेस्तरुणस्यच । . .
स्नेहव्यायामबलिनोविरुद्धवितथंभवेत् ॥ १४४॥ अपनी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध पदार्थ और बलवान् अग्निवाले पुरुष तथा तरुण पुरुष एवम् स्नेह या व्यायाम आदिसे बलवान् पुरुषको भी प्रकृतिसे किंचित् विरुद्ध होनेपर भी हानिकारक होताहै ॥ १४४ ॥
विरुद्ध अन्न सेवन रोगोत्पत्ति ।। पांड्यान्ध्यवीसपदकादराणांविस्फोटकोन्मादभगन्दराणाम् । सूर्छामदाध्मानगलग्रहाणांपाण्डामयस्यामविषस्यचैव॥१४५॥ किलासकुष्ठग्रहणीगदानांशोषास्त्रपित्तज्वरपीनसानाम् । स- .. न्तानदोषस्यतथैवमृत्योविरुद्धमन्नंप्रवदन्तिहेतुम् ॥ १४६ ॥ ' विरुद्ध भोजन करनेसे-नपुंसकता, अंधापन, विसर्प, उदररोग, विस्फोटकरोग, उन्माद, भगंदर, मूर्छा, मद, आध्मान, गलग्रह, पांडु, विषैली आम, किलास, कुष्ठ, ग्रहणी, शोष, रक्तपित्त, ज्वर, अतिश्याय, त्रिदोष तथा, संतानदोष एवम् मरण होताहै ॥ १४५ ॥ १४६ ॥