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सूत्रस्थान अ० २७. (३९३) इस प्रकार ऋतुभेदसे जलका निश्चय कियागयाहै । विना ऋतुसे आगे पीछे बाहुआ जल दोषकारक होताहै इसमें संदेह नहीं ॥ २०१॥
राजभीराजमात्रैश्चसुकुमारैश्चमानवैः ॥
संगृहीताःशरद्यापःप्रयोक्तव्याविशेषतः ॥ २०२॥ राजालोग, धनाढ्य पुरुष तथा सुकुमार मनुष्य इनको प्रायः शरदऋतुमें संग्रह किया जल पीना चाहिये ॥ २०२॥
हिमालयकी नदियोंके गुण। नद्यःपाषाणविच्छिन्नविक्षुब्धाविमलोदकाः ॥
हिमवत्प्रभवाःपथ्याःपुण्यादेवर्षिसेविताः ॥ २०३ ॥ हिमालय पर्वतसे निकली भई नदियोंका जल पत्थरों से आहत और विक्षोभित होताहै तथा निर्मल पुण्य देवर्षियोंसे सेवित एवम् पथ्य होता है ।। २०३ ॥
मलयाचलकी नदियोंका-गुण । नद्यःपाषाणसिकतावाहिन्योविमलोदकाः।
मलयप्रभवायाश्चजलंतास्वमृतोपमम् ॥ २०४॥ _ मलयाचलसे निकली हुई नदियोंका जल पत्थर और रेतमें बहता हुआ निर्मल होताहै तथा अमृतके समान होताहै ॥ २०४ ॥
पश्चिमकी ओर बहनेवाली नदियोंका गुण।
पश्चिमाभिमुखायाश्चपथ्यास्तानिर्मलोदकाः। . प्रायोमृदुवहागुव्यायाश्चपूर्वसमुद्रगाः॥ २०५॥ पश्चिमके समुद्रमें गिरनेवाली नदियोंका जल पथ्य तथा निर्मल होताहै । तथा पूर्वके समुद्रमें गिरनवाली नदियोंका जल मृदुगामी और भारी होताहै ॥ २०५ ॥
अन्य नदियोका जल । पारियात्रभवायाश्चविन्ध्यसाभवाश्चयाः ।
शिरोहृद्रोगकुष्ठानांताहेतुःश्लीपदस्यच ॥ २०६॥ पारियात्रपर्वत, विंध्याचल तथा सह्याद्रिसे निकली नदियोंका नल शिरोरोंग, हद्रोग, श्लोपद, तथा कुष्ठोंको करनेवाला होताहै । २०६ ।।
वर्षाती नदियोंका जल। वसुधाकीटसपाखुमलसंदूषितोदकाः । वर्षाजलवहानद्यःसर्वदोषसमीरणाः॥ २०७॥