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चरकसंहिता-भा० टी०। हन्यान्मधूष्णमुष्णातमथवासविषान्वयात् ।
गुरुरूक्षकषायत्वाच्छैत्याच्चाल्पंहितमधु ॥ २४०॥ क्योंकि मक्खियां सब प्रकारके पुष्पोंमेंसे रस लेतीहैं उनमें कुछ ऐसे पुष्प भी होते हैं जो विषके समान हैं इस लिये मधुको विषके सम्पर्क होनेसे गर्म करके गर्म औषधिके साथ गर्मासे व्याकुल मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये क्योंकि ऐसा होनेसे मधु विषके समान प्राणनाशक होता है ।। मधु-भारी, रूक्ष, कषाय तथा शीतल होनेसे थोडा खाना हितकारक होता है ।। २४० ॥
मधुके गुण । नातःकष्टतमंकिञ्चिन्मध्वामात्तदिमाधवम्। उपक्रमविरोधित्वात्सयोहन्याद्यथाविषम् ॥ २४१ ॥आमेसोष्णाक्रियाकाऱ्या सामध्वामेविरुध्यते । मध्वामंदारुणंतस्मात्सयोहन्याद्यथा विषम् ॥ २४२॥ मधुके अधिक सेवन करनेसे यदि पेटमें आम प्रगट होजाय तो उसको मध्वाम कहते हैं । इससे बढकर कष्टदायक दूसरा रोग नहीं है । क्योंकि इसकी चिकित्सामें उपक्रम विरोध होनेसे चिकित्सा करना कठिन पडता है। प्रायः आमरोगमें उष्ण- . क्रिया करना आवश्यक होता है वह उष्णक्रिया मध्याममें विरोधी पडती है अतएव यह रोग दारुण और विषके समान प्राणनाशक होता है ॥ २४१ ॥ २४२ ॥
मधुको योगवाहित्व। नानाद्रव्यात्मकत्वाच्चयोगवाहिहिममधु । इतीक्षुविकृतिप्रायोवर्गोऽयंदशमोमतः ॥ २४३॥
इति इक्षुवर्ग: । · मधु अनेक गुणवाले द्रव्योंके पुष्पोंसे संग्रह कियाजाताहै इसलिये अनेक द्रव्योंके साथ इसका उपयोग करने में आता है । यह योगवाही और शीतल है । इसप्रकार यह इक्षुवर्ग नामक दशमवर्ग समाप्त हुआ ॥ २४३ ॥
अथ कतान्नवर्गः । क्षुत्तृष्णाग्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगविनाशिनी ।
स्वेदाग्निजननीपेयावातवर्णोऽनुलोमनी ॥ २४४ ॥ पेया-क्षुधा, तृषा, ग्लानि, दुर्वलता, कुक्षिरोग इन सबको शान्त करती है। स्वेद उत्पादक आग्न एवम् अधोवात और मलको निकालनवाली है ॥ २४१॥