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चरकसंहिता - भा० टी० ।
पके हुए आम और आमलेके संयोग से बनाई हुई चटनी - चिकनी, मीठी, भारी, बलवर्द्धक, बृंहण, रुचिकारक तथा तृप्तिकारक होती है ॥ २७४ ॥ लेह ( चटनी ) गुण | बुद्धासंयोगसंस्कारद्रव्यमानञ्चतत्स्मृतम् ।
गुणकर्माणिलेहानां तेषां तेषां तथावदेत् ॥ २७५ ॥ जितने प्रकार के लेह पदार्थ हैं वह सब संयोग, संस्कार, द्रव्य, परिमाण इनके भेदसे उनके गुण कर्मोंको कथन करे ॥ २७५ ॥
शुक्तके गुण । रक्तपित्तकफोरक्लेदिशुक्तंवातानुलोमनम् ।
कन्दमूलफलाद्यञ्चतद्वद्विद्यात्तदासुतम् ॥ २७६ ॥
कंद, मूल, फल आदिकों का अचार - रक्तपित्त, कफ इनको उत्क्लेश करनेवाला तथा वातको अनुलोम करनेवाला होता है । शिरकेमें डाला हुआ अचार भी उन्हींके समान गुणवाला होताहै ॥ २७६ ॥
शिण्डाकीका गुण |
शिण्डाकीचासुतञ्चान्यत्कालाम्लंरोचनंलघु । विद्याद्वर्गकृतान्नानामेकादशत मंभिषक् ॥ २७७॥ .
इति कृतान्नवर्गः ।
चटनियें, अचार, कांजी, आदि सब प्रकारकी खटाई रुचिकारक और - हलकी होती है । इसप्रकार कृतान्नवर्ग नामक एकादश वर्ग समाप्त हुआ ॥ २७७ ॥ अथाहारयोगवर्गः | तैलके गुण । कषायानुरसंस्वादुसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच । पित्तलंबद्धविण्मूत्रन चश्लेष्माभिवर्द्धनम् ॥ २७८ ॥ वातघ्नेषूत्तमंबल्यंत्वच्यं मेधाग्रिवर्द्धनम् । तैलंसंयोगसंस्कारात्सर्वरोगापहंमतम् ॥ २७९ ॥
तिलोंका तेल - कषाय, अनुरस, स्वादु, सूक्ष्म, उष्ण, व्यवायी, पित्तवर्द्धक, मल मूत्रको बांधनेवाला तथा कफवर्द्धक नहीं है । वातनाशकोंमें उत्तम, बलकारक, त्वचाको उत्तम बनानेवाला, मेघा और अग्निको बढानेवाला होता है एवम् औषधियोंके संयोगसे सिद्ध किया तैल संपूर्ण रांगोंको नष्ट करता है || २७८ ॥ २७९ ॥
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